📰 वो रिज़ल्ट वाला अख़बार अब नहीं आता ❤️
वो ज़माना गुज़र गया, अब बच्चों के मार्क्स 95% से भी ऊपर आने पर भी कुछ ख़ास ख़ुशी नहीं होती... और उस जमाने में 36% मार्क्स वाला भी शिक्षक बनने की योग्यता रखता था, जो आज के अफ़सरों को पढ़ा रहा होता था।
क्योंकि तब मार्क्स नहीं, ज्ञान बाँटा जाता था।
रिजल्ट तो उस जमाने में आते थे, जब पूरे बोर्ड का रिजल्ट 17% हो... और उसमें भी आप "वैतरणी" तर लेते तो पूरे कुनबे का सीना चौड़ा हो जाता था।
📘 दसवीं का बोर्ड...
बचपन से ही इसके नाम से ऐसा डराया जाता था कि आधे तो वहाँ पहुँचने तक ही पढ़ाई से सन्यास ले लेते थे।
जो हिम्मत करके पहुँचते, उनकी हिम्मत गुरुजन और परिजन पूरे साल ये कहकर बढ़ाते – "अब पता चलेगा बेटा, कितने होशियार हो। नवीं तक तो जानवर भी पास हो जाते हैं!"
📉 पंचवर्षीय योजना बनाने वाले दोस्त
हाईस्कूल में ऐसे दोस्त भी होते थे जो पहले ही हार मान चुके होते: "भाई, खाली पढ़ने से कुछ नहीं होगा... अब हमें ही देख लो..."
🌙 रिजल्ट की रात
ऑनलाइन का ज़माना नहीं था... शहर के दो-तीन हीरो (अक्सर फेल होने के एक्सपर्ट) आधी रात को साइकिल या राजदूत से शहर जाते...
फिर लौटते समय आवाज लगती – "रिजल्ट, रिजल्ट..."
मुहल्ले का हर इंसान उन पर टूट पड़ता... अख़बार कमर में, एक ऊँची जगह चढ़कर roll number पुकारा जाता –
- पाँच हजार एक सौ तिरासी – फेल
- चौरासी – फेल
- छियासी – सप्लीमेंट्री
कोई मुरव्वत नहीं! पूरे मोहल्ले के सामने बेइज्जती... रिजल्ट दिखाने की फीस डिवीजन से तय, लेकिन फेल वालों के लिए सेवा नि:शुल्क।
🔦 टॉर्च की रोशनी में एवरेस्ट आरोहण
जो पास हो जाता, वो ऊपर जाकर अपना नंबर देख सकता... टॉर्च की रोशनी में रोल नंबर मिलाया जाता, और फिर ₹10, ₹20 या ₹50 देकर पिता-पुत्र एवरेस्ट फतह कर वापस लौटते।
😅 “अरे, कुंभ का मेला थोड़ी है बेटा...”
जिनका नंबर नहीं आता... उनके लिए परिजन कहते – "अरे, कुंभ का मेला थोड़ी है जो बारह साल में आएगा, अगले साल फिर दे देना एग्जाम..."
🧠 तुलना: तब और अब
अब बच्चों के मार्क्स फारेनहाइट में आते हैं – 99.2, 98.6, 98.8… और तब सेंटीग्रेड में आते थे – 37.1, 38.5, 39 😄
50% लाने वाले पर भी खुसर-फुसर होती – "नकल की होगी, इतना मेहनती थोड़ी था..."
❤️ “सच में, रिजल्ट तो उस ज़माने में आता था... अब तो बस नंबर आते हैं”
(जिसने भी यह लिखा – उसे दिल से धन्यवाद 🙏 बचपन दोबारा जीने का अवसर देने के लिए)
📲 और ऐसे ही विचारों के लिए जुड़े रहें – 👉 https://t.me/DailyEduMagzine
📜 समीक्षा: वो रिज़ल्ट वाला अख़बार अब नहीं आता ❤️
शिक्षा केवल अंकों का खेल नहीं होती – यह जीवन, मूल्य और आत्मगौरव का सम्मिलन होती है। इस मार्मिक संस्मरणात्मक लेख में पुराने दौर की परीक्षा व्यवस्था और आज के "टॉपर-आधारित" सिस्टम के बीच का अंतर बड़ी ही सरल भाषा में बताया गया है।
📰 जब अख़बार भविष्य सुनाते थे
आज जहां ऑनलाइन पोर्टल और SMS से रिज़ल्ट मिल जाता है, वहीं 80s-90s में एक अख़बार ही मोहल्ले का UPSC सेंटर
🏆 डिवीजन ही सफलता की कसौटी थी
36% मार्क्स लाने वाला भी शिक्षक बनता था और समाज में सम्मान पाता था। आज के 98% वाले बच्चों से ज्यादा वह अपने "गुरु" और "संस्कार" के लिए प्रतिबद्ध होते थे।
📉 आज के नंबर, तब की सादगी
लेख में व्यंग्यात्मक शैली में दिखाया गया है कि अब मार्क्स फारेनहाइटसेंटीग्रेड
📚 मूल्य आधारित शिक्षा बनाम अंक आधारित प्रणाली
समीक्षा का सार यही है कि उस जमाने में "रिज़ल्ट" आता था, आज बस "नंबर"। पहले पास होना गर्व की बात थी, अब टॉपर बनना भी बोझ है।
🎯 निष्कर्ष:
यह लेख एक nostalgic reflection नहीं, एक चेतावनी
पढ़ें पूरा लेख यहां: 👉 www.sarkariserviceprep.com
📲 और जुड़े हमारे शिक्षा विचार मंच से – https://t.me/DailyEduMagzine
© 2025 | Sarkari Service Prep™
बदलती शिक्षा प्रणाली – जब 30% रिज़ल्ट में गर्व था और आज 95% में शांति नहीं

लेखक: Sarkari Service Prep™ टीम | प्रकाशन तिथि: 30 मई 2025
🔎 भूमिका
वो समय भी था जब बच्चों के 36% अंक आने पर पूरा मोहल्ला मिठाई बाँटता था। और आज 96% के बाद भी माता-पिता की उम्मीदें अधूरी रहती हैं। ऐसा क्यों? क्या वास्तव में शिक्षा का उद्देश्य बदल चुका है? क्या अब सिर्फ नंबर ही ज्ञान का प्रमाण बन गए हैं? आइए इस लेख में उस बदलाव को समझते हैं जो हमारी शिक्षा प्रणाली में समय के साथ आया है।
📊 पहले बनाम अब: शिक्षा प्रणाली की तुलना
क्रम | पुरानी शिक्षा प्रणाली | वर्तमान शिक्षा प्रणाली |
---|---|---|
1️⃣ | 30% अंक में भी गर्व और सामाजिक स्वीकार्यता | 95% अंक भी मानसिक दबाव से मुक्त नहीं कर पाते |
2️⃣ | शिक्षक = समाज निर्माता | शिक्षक = परीक्षा परिणाम आधारित मूल्यांकन |
3️⃣ | पाठ्यपुस्तकें = नैतिक व जीवन मूल्यों का संकलन | पाठ्यपुस्तकें = स्कोरिंग टूल मात्र |
4️⃣ | अंक = योग्यता का संकेत नहीं, परिश्रम का सम्मान | अंक = सफलता का मापदंड |
5️⃣ | फेल होने पर सहानुभूति और प्रेरणा | फेल होने पर सामाजिक दूरी और उपेक्षा |
6️⃣ | समूह अध्ययन और सह-अधिगम | कोचिंग संस्कृति और प्रतियोगिता |
7️⃣ | शिक्षा = ज्ञान, नैतिकता और चरित्र निर्माण | शिक्षा = मार्क्स, रैंक और अंकों की होड़ |
8️⃣ | रिज़ल्ट = उत्सव का दिन | रिज़ल्ट = तनाव और तुलना का दिन |
📚 विशेषज्ञ दृष्टिकोण (References)
✅ निष्कर्ष
हमारी शिक्षा प्रणाली को यह समझने की आवश्यकता है कि अंक सिर्फ एक परिणाम हैं, न कि किसी की संपूर्ण योग्यता का प्रमाण। यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे केवल सफल न हों बल्कि सशक्त भी बनें, तो हमें शिक्षा के मूल उद्देश्यों को पुनः आत्मसात करना होगा – ज्ञान, संवेदना, नैतिकता और सहयोग।
📢 CTA: और पढ़ें
📌 Join Us: टेलीग्राम चैनल पर शिक्षा से जुड़ें
🌐 Visit: www.SarkariServicePrep.com
Telegram Join Link: https://t.me/sarkariserviceprep
📥 Download Zone:
📌 Useful for Exams:
- UPSC | RPSC | SSC | REET | Patwar | LDC
- All India Competitive Exams
✅ Note: Don’t forget to share this post with your friends and join our Telegram for regular updates.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया टिप्पणी करते समय मर्यादित भाषा का प्रयोग करें। किसी भी प्रकार का स्पैम, अपशब्द या प्रमोशनल लिंक हटाया जा सकता है। आपका सुझाव हमारे लिए महत्वपूर्ण है!