बख्तावर: राजस्थान का एक भूला हुआ नायक
एक ऐसी लोककथा जो पीढ़ियों से साहस, स्वाभिमान और हृदय परिवर्तन की कहानी सुनाती आ रही है।
अध्याय १: विरासत और विद्रोह
राजस्थान की सुनहरी रेत और अरावली की प्राचीन पहाड़ियों के बीच बसा था एक समृद्ध गांव, जहाँ की मिट्टी में वीरता और स्वाभिमान की कहानियां रची-बसी थीं। कई पीढ़ियों से गांव का कुशल नेतृत्व एक ही परिवार के हाथों में था। जब गांव के वयोवृद्ध और न्यायप्रिय मुखिया ने इस नश्वर संसार से विदा ली, तो परंपरा के अनुसार उनके ज्येष्ठ पुत्र को गांव की पगड़ी और मुखिया का सम्मानित पद सौंपा गया। वह विनम्र, समझदार और अपने पिता के पदचिन्हों पर चलने वाला व्यक्ति था, जिसका एकमात्र ध्येय गांव में शांति और समृद्धि बनाए रखना था।
परन्तु, इस परिवार में एक और सदस्य था - मुखिया का छोटा भाई, बख्तावर। नाम के अनुरूप ही बख्तावर बख्त (भाग्य) और आवर (शक्ति) का धनी था। उसका डील-डौल किसी योद्धा से कम न था, चौड़ी छाती, मजबूत भुजाएं और आँखों में एक अजब सी चमक। तलवारबाजी में उसका कोई सानी नहीं था; जब उसकी तलवार म्यान से निकलती तो हवा भी थर्रा उठती। लेकिन बख्तावर जितना ताकतवर था, उतना ही अपनी मर्जी का मालिक भी। नियम और कानून उसके लिए बेड़ियां थीं, और अनुशासन उसे रास नहीं आता था। वह स्वच्छंद था, उन्मुक्त था, और अपने मन की ही सुनता था।
धीरे-धीरे गांव में बख्तावर के उग्र स्वभाव और मनमानी की चर्चाएं आम होने लगीं। कभी किसी से बेवजह उलझ पड़ना, कभी किसी की फसल को रौंद देना, तो कभी अपनी ताकत के नशे में किसी कमजोर को धमका देना - बख्तावर के आतंक की कहानियां मुखिया के कानों तक पहुंचने लगीं। हर तरफ से शिकायतें आने लगीं। गांव के पंच और आमजन मुखिया से बख्तावर को समझाने का आग्रह करते।
बड़ा भाई, जो अब गांव का मुखिया था, अपने छोटे भाई बख्तावर को दिलोजान से चाहता था। बचपन की स्मृतियाँ, साथ खेले खेल, और भाई का निश्छल प्रेम उसे बख्तावर के प्रति कठोर होने से रोकता था। उसने कई बार अकेले में बख्तावर को पास बिठाया, उसे प्यार से समझाया, डांटा-फटकारा भी। "बख्तावर," वह कहता, "यह ताकत तुझे ईश्वर ने रक्षा के लिए दी है, आतंक फैलाने के लिए नहीं। गांव हमारा परिवार है, और मुखिया होने के नाते इनकी सुरक्षा मेरा धर्म है। तू मेरा छोटा भाई है, मेरी लाज रख।"
बख्तावर सुनता, कभी अनसुना कर देता, तो कभी कुछ समय के लिए शांत हो जाता। पर उसका अल्हड़ और विद्रोही स्वभाव उसे अधिक समय तक बांधकर नहीं रख पाता। वह फिर अपनी मनमानी पर उतर आता। मुखिया की बातें उसके एक कान से घुसतीं और दूसरे से निकल जातीं।
एक दिन, जब पानी सिर से ऊपर गुजर गया और गांव वालों की शिकायतों का अंबार लग गया, तो मुखिया ने भारी मन से एक कठोर निर्णय लिया। उसका हृदय अपने भाई के मोह और मुखिया के धर्म के बीच द्वंद्व में फंसा था, पर अंततः धर्म ने मोह पर विजय पाई। उसने गांव में शांति और सुकून बनाए रखने की अपनी शपथ को याद किया।
मुखिया ने गांव की पंचायत बुलवाई। चौपाल पर गांव के सभी प्रतिष्ठित जन, पंच और आम नागरिक उपस्थित थे। बख्तावर को भी पंचायत में बुलाया गया। माहौल में एक अजीब सी गंभीरता और तनाव था। सभी की निगाहें मुखिया पर टिकी थीं, जो अपने आसन पर पत्थर की मूरत बने बैठे थे, उनके चेहरे पर चिंता और दृढ़ता के मिले-जुले भाव थे।
कुछ देर की खामोशी के बाद मुखिया का गंभीर स्वर गूंजा, "पंचों और गांव वालों, आप सब बख्तावर की हरकतों से वाकिफ हैं। मैंने इसे समझाने की बहुत कोशिश की, पर यह अपनी मनमानी से बाज नहीं आता। आज, इस भरी पंचायत में, मैं बख्तावर को दो रास्ते देता हूँ।" सबकी सांसें थम गईं।
मुखिया ने बख्तावर की ओर देखते हुए कहा, उसकी आवाज़ में दर्द और दृढ़ता दोनों थे, "बख्तावर! या तो गांव का कानून मानो और एक जिम्मेदार नागरिक की तरह जियो, या फिर हमेशा के लिए यह गांव छोड़कर चले जाओ। मेरे छोटे भाई हो, मुझे विश्वास है कि तुम कहीं भी अपनी गुजर-बसर कर लोगे। और... और अगर तुम खुद को इस लायक भी नहीं समझते, तो सुनो! मैं, तुम्हारा बड़ा भाई, यह गांव और यह मुखिया का पद, सब कुछ त्याग देता हूँ! तुम यहीं रहो, पर गांव में अशांति नहीं फैलेगी।"
(राजस्थान की पंचायत परंपरा में मुखिया का वचन पत्थर की लकीर माना जाता था।)
पंचायत में सन्नाटा छा गया। बख्तावर के चेहरे पर कई भाव आए और गए – गुस्सा, अविश्वास, और शायद थोड़ा सा आहत अभिमान भी। वह जानता था कि उसका बड़ा भाई जो कहता है, वह करके दिखाता है। बख्तावर तो बख्तावर था! किसी के आगे झुकना उसने सीखा नहीं था। उसका स्वाभिमान आहत हो चुका था। वह बिना एक शब्द कहे पंचायत से उठा, उसकी चाल में वही अकड़ थी, वही बेपरवाही। उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा और गांव की सीमा से बाहर निकल गया, अपने पीछे छोड़ गया एक व्यथित भाई, एक स्तब्ध पंचायत, और अनगिनत अनकही भावनाएं।
अध्याय २: निर्वासन और दस्यु जीवन
गांव की सीमा के पार, बख्तावर के लिए एक नई, अनिश्चित और कठिन राह इंतजार कर रही थी। उसका स्वाभिमान आहत था, पर हृदय में अपने बड़े भाई के प्रति कोई द्वेष नहीं था। वह जानता था कि मुखिया ने जो किया, वह अपने धर्म और गांव की शांति के लिए किया। कुछ समय तक वह दिशाहीन होकर भटकता रहा, उसकी तलवार ही उसकी एकमात्र साथी थी और उसका बाहुबल ही उसका सहारा।
धीरे-धीरे, परिस्थितियों ने उसे उस मार्ग पर धकेल दिया जिसके लिए शायद वह बना नहीं था, या शायद उसका उग्र स्वभाव उसे वहीं ले गया। बख्तावर की मुलाकात कुछ ऐसे लोगों से हुई जो समाज के नियमों को नहीं मानते थे, और जिनके लिए शक्ति ही कानून थी। उसकी वीरता और तलवारबाजी के कौशल ने उसे जल्द ही उनके बीच एक खास पहचान दिला दी। वह उन बिखरे हुए, दिशाहीन बाहुबलियों का सरदार बन बैठा।
समय का चक्र अपनी गति से घूमता रहा, रेत के टीले हवा के साथ अपना स्थान बदलते रहे, और सूरज अनगिनत बार उगा और डूबा।कालान्तर में, बख्तावर का नाम एक निर्भीक और कुख्यात दस्यु सरदार के रूप में दूर-दूर तक फैल गया। उसकी मंडली ने अमीरों और साहूकारों के यहाँ अनेक सफल डाके डाले। उसके नाम की दहशत फैलने लगी। गरीबों और कमजोरों के लिए वह कभी-कभी मसीहा भी बन जाता, पर कानून की नजर में वह एक भगोड़ा और अपराधी था। उसके कारनामों के किस्से, कुछ सच्चे कुछ बढ़ा-चढ़ाकर, हवाओं के साथ उड़ते हुए उसके पैतृक गांव तक भी पहुंचने लगे। लोग दबी जुबान में बख्तावर की चर्चा करते - कोई उसकी वीरता की प्रशंसा करता, तो कोई उसके दस्यु जीवन पर अफसोस जताता।
लेकिन एक बात जो अडिग रही, वह थी बख्तावर का अपने भाई और अपने गांव के प्रति मौन सम्मान। उसने अपनी मंडली को सख्त हिदायत दे रखी थी कि उसके गांव की दिशा में कभी कोई डाका या लूटपाट नहीं होगी। उसने अपने बड़े भाई के गांव की तरफ कभी मुड़कर भी नहीं देखा, जैसे उस सीमा को उसने अपने लिए अलिखित रूप से वर्जित कर दिया हो। उसके हृदय के किसी कोने में शायद अब भी अपने परिवार और अपनी मिट्टी के प्रति एक नरम स्थान था।
एक अमावस की अंधेरी रात थी। बख्तावर अपनी मंडली के साथ किसी गुप्त स्थान पर, किसी सफल डाके के बाद जश्न मना रहा था। मदिरा का दौर चल रहा था, और हर कोई अपनी वीरता की डींगें हांक रहा था। बख्तावर, अपनी ताकत और सफलता के मद में चूर, अपने साथियों के बीच बैठा किसी राजा की भांति प्रतीत हो रहा था। उसकी आंखों में वही पुरानी धधक थी, पर अब उसमें दस्यु जीवन की क्रूरता भी शामिल हो गई थी।
तभी, मंडली के कुछ चापलूस और कुटिल बदमाशों ने, जो शायद बख्तावर की बढ़ती शक्ति से जलते थे या उसे अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे, बातों ही बातों में एक जहरीला बीज बोने का प्रयास किया। एक ने कहा, "सरदार, आपकी क्या शान है! आप यहाँ जंगलों में भटक रहे हैं, और आपका बड़ा भाई गांव में पिता की सारी संपत्ति पर कब्जा करके ऐश की जिंदगी जी रहा होगा।" दूसरे ने बात आगे बढ़ाई, "हाँ सरदार, उसने तो आपको गांव से निकाल ही इसलिए दिया ताकि सारी जायदाद अकेले हड़प सके। और आप हैं कि आज भी उसके गांव की तरफ आंख उठाकर नहीं देखते!"
ये शब्द बख्तावर के कानों में पिघले हुए शीशे की तरह उतरे। मदिरा का नशा और दबी हुई पुरानी टीस एकाएक जाग उठी। भाई के प्रति जो सम्मान और समझ उसके मन में थी, वह बदमाशों के जहरीले शब्दों और क्षणिक क्रोध के आगे धूमिल होने लगी। उसे पंचायत का वह दृश्य याद आया, अपने भाई का कठोर निर्णय, और अपना निर्वासन। उसे लगा कि उसके साथ अन्याय हुआ है, उसके भोलेपन का फायदा उठाया गया है।
क्रोधित बख्तावर की आंखें लाल हो गईं, उसकी मुट्ठियां भिंच गईं। उसने अपनी तलवार पर हाथ रखते हुए गरजकर कहा, "तो यह बात है! मेरे भाई ने मेरे साथ छल किया! उसने मुझे गांव से निकालकर मेरी विरासत पर कब्जा कर लिया! मैं उसे ऐसा दंड दूंगा... ऐसा दंड दूंगा कि दुनिया कांप जाएगी!"
उसने उसी क्षण अपने सबसे भरोसेमंद साथियों को तैयार होने का आदेश दिया और निकल पड़ा अपने पैतृक गांव की तरफ, अपने भाई से प्रतिशोध लेने। उसके मन में क्रोध की अग्नि धधक रही थी, और उसने प्रण कर लिया था कि वह अपने भाई को उसके किए की ऐसी सजा देगा जिसे आने वाली पीढ़ियां भी याद रखेंगी। उसका विवेक क्रोध के अंधकार में खो चुका था।
अध्याय ३: मासूमियत का सामना और हृदय परिवर्तन
क्रोध और प्रतिशोध की आग में जलता हुआ बख्तावर, अपने कुछ चुनिंदा साथियों के साथ, तेज घोड़ों पर सवार होकर अपने पैतृक गांव की ओर बढ़ रहा था। हर गुजरते पल के साथ उसका गुस्सा और भी बढ़ता जा रहा था। उसने मन ही मन अपने भाई को दंड देने की कई क्रूर योजनाएं बना ली थीं। वह भूल चुका था अपने भाई का स्नेह, भूल चुका था गांव की मिट्टी की खुशबू, उसके मन में केवल प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही थी।
जब वह अपने गांव की बाहरी सीमा में, सुनसान जंगल से गुजर रहा था, तो उसकी नजर एक छोटे से बालक पर पड़ी। वह बालक अकेला, निडर होकर जंगल में खेल रहा था। उसकी उम्र यही कोई सात-आठ साल रही होगी। वह कभी किसी ऊंचे पेड़ पर बंदर की तरह चढ़ जाता, तो कभी नीचे कूदकर सूखी पत्तियों में लोटपोट हो जाता। कभी वह किसी खरगोश के पीछे भागता, तो कभी किसी गिलहरी को पकड़ने की कोशिश करता। उसकी खिलखिलाहट और निश्चल आनंद पूरे जंगल में गूंज रहा था।
बख्तावर ने अपने साथियों को रुकने का इशारा किया और घोड़े से उतरकर उस बालक के पास गया। बालक, एक अजनबी को देखकर भी डरा नहीं, बल्कि कौतूहल से उसे देखने लगा। बख्तावर ने कठोर स्वर में पूछा, "ए लड़के, तू कौन है? इस सुनसान जंगल में अकेला क्या कर रहा है?"
बालक ने अपनी तोतली लेकिन स्पष्ट आवाज़ में उत्तर दिया, "मैं तो खेल रहा हूँ। और तुम कौन हो? पहले कभी नहीं देखा तुम्हें।"
बख्तावर के मन में अपने भाई के प्रति क्रोध और भी बढ़ गया। 'इसका बेटा यहाँ जंगल में अकेला खेल रहा है, और वह गांव में मेरी संपत्ति पर ऐश कर रहा होगा,' उसने सोचा। उसने बालक से उसका परिचय पूछा। बालक ने गर्व से छाती फुलाकर कहा, "मैं इस गांव के मुखिया का बेटा हूँ!"
यह सुनकर बख्तावर के तन-बदन में जैसे आग लग गई। यही था वह क्षण जिसका उसे इंतजार था। उसने सोचा, 'भाई को दंड देने का इससे अच्छा तरीका और क्या होगा? उसके कलेजे के टुकड़े को ही उससे छीन लूँगा!' गुस्साए बख्तावर ने उस नादान बच्चे को जान से मारकर अपने भाई से बदला लेने का क्रूर और अमानवीय निर्णय ले लिया।
उसने अपनी विशाल तलवार म्यान से बाहर निकाली, जिसकी धार सूरज की रोशनी में चमक उठी। उसने तलवार बालक की ओर करते हुए कहा, उसकी आवाज़ में क्रूरता थी, "बच्चे, आज तेरी अंतिम घड़ी आ गई है। मैं तुझे जान से मारूंगा, तेरे पिता के कर्मों की सजा तुझे मिलेगी!"
बख्तावर को उम्मीद थी कि बालक डर जाएगा, गिड़गिड़ाएगा, जान की भीख मांगेगा। पर हुआ इसके ठीक विपरीत। वह छोटा सा बालक, उस विशालकाय दस्यु और उसकी चमकती तलवार को देखकर रत्ती भर भी नहीं डरा। उसकी आँखों में न भय था, न आंसू। बल्कि, एक अजीब सी हेकड़ी और स्वाभिमान था।
वह बालक बिना डरे, बिना गिड़गिड़ाए, अपनी पतली कमर पर हाथ रखकर बोला, उसकी आवाज़ में गजब का आत्मविश्वास था, "अरे अजनबी! तुम मारोगे मुझे? अरे मूर्ख, ऐसा सोचना भी मत! भाग जा यहाँ से, वरना तेरी खैर नहीं! तुझे पता नहीं मैं कौन हूँ?"
बख्तावर अवाक रह गया। एक नन्हा सा बालक उसे धमका रहा था! उसने पूछा, "कौन है तू इतना बड़ा शूरवीर?"
बालक ने और भी गर्व से कहा, "तुझे पता है कि मैं मुखिया का बेटा तथा... तथा बख्तावर का भतीजा हूँ! मेरे चाचा बख्तावर का नाम सुना है? वह बहुत बड़े योद्धा हैं! मुझे मारना तो दूर की बात है, अगर मेरे चाचा बख्तावर ने सुन भी लिया कि तूने उसके भतीजे को मारने की बात सोची भी है, तो वह तुझे ऐसी सजा देगा कि तेरी सात पीढ़ियां कांप जाएंगी! भाग जा, वरना मैं चाचा बख्तावर को बुलाता हूँ!"
यह कहकर भतीजे ने अपना हाथ झटके से छुड़ाया, जैसे बख्तावर का कोई अस्तित्व ही न हो, और अपने पालतू जानवर (शायद एक बकरी या कुत्ता) की तरफ निश्चिंत होकर रवाना हो गया, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
भतीजे के जाने के बाद, पीछे रह गया किंकर्तव्यविमूढ़ बख्तावर। उसके हाथ से तलवार छूटकर जमीन पर गिर पड़ी। उसके कानों में भतीजे के शब्द गूंज रहे थे - "बख्तावर का भतीजा"। जिस नाम से दुनिया कांपती थी, आज उसी नाम ने एक मासूम बच्चे को निडर बना दिया था। जिस चाचा को वह मारने आया था, उसी चाचा का नाम उसके भतीजे के लिए सबसे बड़ा सुरक्षा कवच था। बख्तावर को अपने किए पर, अपने क्रोध पर, और अपनी मूर्खता पर तीव्र ग्लानि हुई। उसे अपने बड़े भाई का स्नेह, उसका त्याग, और पंचायत में कहे उसके शब्द याद आ गए। उसे एहसास हुआ कि असली संपत्ति और शक्ति परिवार के स्नेह और सम्मान में है, न कि लूटपाट और आतंक में।
उसी पल, उसी स्थान पर, बख्तावर ने अपनी खून से सनी तलवार को देखा, और फिर उस दिशा में जहाँ उसका निडर भतीजा गया था। एक गहरी सांस ली, जैसे बरसों का बोझ उतर गया हो। बख्तावर ने उसी क्षण अपना दस्यु जीवन समाप्त करने और संन्यास लेने का दृढ़ निश्चय कर लिया। उसने अपने साथियों को वहीं छोड़ दिया और एक अज्ञात दिशा की ओर चल पड़ा, शांति और आत्म-शुद्धि की खोज में।
कहते हैं, उसके बाद बख्तावर कभी किसी गांव में दस्यु के रूप में नहीं देखा गया। उसने अपना शेष जीवन साधु के रूप में बिताया, लोगों की सेवा करते हुए। आज भी राजस्थान के कुछ अंचलों में लोग बख्तावर को उसके प्रारंभिक जीवन की भूलों के बावजूद, उसके अंतिम हृदय परिवर्तन और उसके नाम के उस रौब के लिए बड़े सम्मान से याद करते हैं, जिसने एक मासूम की जान बचाई और एक दस्यु को संत बना दिया। उसकी कहानी पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जाती है, यह सिखाते हुए कि मानवीय मूल्यों और पारिवारिक स्नेह की शक्ति किसी भी तलवार से अधिक बलवान होती है।
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