राणा सांगा: 'एक आँख, एक हाथ, एक पाँव' और 80 घावों वाले अजेय योद्धा की महागाथा!
अरे सुनो, सुनो, सुनो! इतिहास के सुनहरे पन्नों में जब भी वीरता, अदम्य साहस और मातृभूमि के प्रति अटूट समर्पण की बात होती है, तो एक नाम सुनहरे अक्षरों में चमकता है – महाराणा संग्राम सिंह, जिन्हें इतिहास राणा सांगा के नाम से पूजता है। यह वो सूरमा थे जिनके शरीर का शायद ही कोई अंग युद्धों में मिले घावों से अछूता रहा हो। एक आँख, एक हाथ, और एक पाँव (क्षतिग्रस्त) के बावजूद, उनके नाम से ही दुश्मनों की रूह काँप उठती थी। क्या आप जानते हैं उनके शरीर पर सजे उन 80 घावों की पूरी कहानी और मेवाड़ के इस 'हिन्दूपत' बादशाह के जीवन के उन अनछुए पहलुओं को? चलिए, आज गोता लगाते हैं इतिहास के उस दौर में और जानते हैं इस महायोद्धा की विस्तृत गाथा!

कौन थे ये 'सैनिकों के भग्नावशेष' महाराणा सांगा?
राणा सांगा (शासनकाल 1508-1528 ई.) मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के उस सूर्य के समान थे, जिसने अपनी आभा से समकालीन भारत की राजनीति को प्रभावित किया। उनके पिता राणा रायमल थे। सांगा का प्रारंभिक जीवन भी संघर्षों से भरा रहा। अपने भाइयों, पृथ्वीराज (उड़ना राजकुमार) और जयमल के साथ उत्तराधिकार के लिए उनका संघर्ष हुआ, जिसमें उन्हें कई संकटों का सामना करना पड़ा। कहा जाता है कि इसी संघर्ष के दौरान उनकी एक आँख चली गई थी। लेकिन विपरीत परिस्थितियों ने उन्हें और भी मजबूत बनाया।
जब वे मेवाड़ की गद्दी पर बैठे, तब भारत की राजनीतिक स्थिति अत्यंत अस्थिर थी। दिल्ली सल्तनत कमजोर पड़ चुकी थी, और गुजरात तथा मालवा के सुल्तान अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे थे। ऐसे समय में राणा सांगा ने न केवल मेवाड़ की सीमाओं को सुरक्षित किया, बल्कि अपनी सैन्य शक्ति और कूटनीति से उत्तर भारत में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरे। उनका सपना एक विशाल राजपूत साम्राज्य स्थापित कर दिल्ली पर पुनः हिन्दू शासन स्थापित करना था, इसीलिए उन्हें 'हिन्दूपत' भी कहा गया।
क्या आप जानते हैं? कर्नल जेम्स टॉड, प्रसिद्ध इतिहासकार, ने राणा सांगा को "सैनिकों का भग्नावशेष" (Remains of a Soldier/A Fragment of a Soldier) कहा था। इसका कारण था कि उनके शरीर पर अनगिनत घाव थे, जो विभिन्न युद्धों में उन्हें लगे थे – एक आँख जा चुकी थी, एक हाथ कट चुका था, और एक पैर लंगड़ा हो गया था।
"अस्सी घाव लगे थे तन में, फिर भी व्यथा नहीं थी मन में!" – घावों का वो हैरान करने वाला सच!
जब हम सुनते हैं कि राणा सांगा के शरीर पर 80 घाव थे, तो यह संख्या अविश्वसनीय लगती है! ये घाव किसी एक युद्ध की देन नहीं थे, बल्कि उनके संपूर्ण योद्धा जीवन का लेखा-जोखा थे। प्रत्येक घाव एक कहानी कहता था, उनके साहस, उनकी जिजीविषा और उनके युद्ध कौशल की।
- एक आँख की कुर्बानी: जैसा कि पहले बताया गया, भाइयों के बीच हुए संघर्ष में उनकी एक आँख हमेशा के लिए चली गई थी। यह उनके जीवन की प्रारंभिक चुनौतियों में से एक थी।
- एक हाथ का बलिदान: दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इब्राहिम लोदी के विरुद्ध खातौली के युद्ध (1517 ई.) में संघर्ष करते हुए उनका एक हाथ तलवार के वार से कट गया था। इसके बावजूद उन्होंने युद्ध जारी रखा और विजय प्राप्त की।
- एक पाँव से लंगड़े: एक अन्य युद्ध, संभवतः बाड़ी के युद्ध (1518 ई.) या किसी अन्य संघर्ष में, उनका एक पाँव बुरी तरह घायल हो गया था, जिससे वे जीवन भर लंगड़ा कर चलते रहे।
इन बड़ी क्षतियों के अतिरिक्त, उनके शरीर पर तलवारों, भालों और तीरों के अनगिनत छोटे-बड़े निशान थे, जो कुल मिलाकर लगभग 80 घावों की संख्या तक पहुँचते थे। सोचिए, ऐसे शारीरिक रूप से खंडित व्यक्ति का युद्धभूमि में नेतृत्व करना कितना प्रेरणादायक रहा होगा! यह उनके असाधारण मानसिक बल और मेवाड़ की रक्षा के प्रति उनके अटूट समर्पण का प्रमाण है।
राणा सांगा के प्रमुख सैन्य अभियान (खानवा से पहले)
खानवा का युद्ध निःसंदेह उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण युद्ध था, लेकिन उससे पहले भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण विजयें प्राप्त की थीं:
- खातौली का युद्ध (1517 ई.): इस युद्ध में राणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को पराजित किया। इसी युद्ध में उन्होंने अपना एक हाथ खोया था, लेकिन लोदी की सेना को भारी क्षति पहुँचाई।
- बाड़ी (धौलपुर) का युद्ध (1518 ई.): खातौली की हार का बदला लेने के लिए इब्राहिम लोदी ने मियां माखन के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी, जिसे राणा सांगा ने पुनः पराजित किया। इससे सांगा की धाक पूरे उत्तर भारत में जम गई।
- गागरोन का युद्ध (1519 ई.): राणा सांगा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय को इस युद्ध में बुरी तरह पराजित किया, उसे बंदी बना लिया। हालांकि, राजपूती उदारता का परिचय देते हुए सांगा ने कुछ समय बाद महमूद खिलजी को ससम्मान उसका राज्य लौटा दिया (केवल अपने राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करने के बाद)।
इन विजयों ने राणा सांगा को उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली शासक बना दिया था। उनकी शक्ति और प्रतिष्ठा से दिल्ली का लोदी सल्तनत भी भयभीत रहता था।
खानवा का महासंग्राम (17 मार्च, 1527) – जब दो महाशक्तियाँ टकराईं!
राणा सांगा के जीवन का सबसे निर्णायक और भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण युद्धों में से एक था खानवा का युद्ध, जो उन्होंने मुगल आक्रमणकारी बाबर के खिलाफ लड़ा। पानीपत में इब्राहिम लोदी को हराने के बाद बाबर भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डाल चुका था, लेकिन उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा राणा सांगा थे।
युद्ध की पृष्ठभूमि और 'पाटी-पेरवन'
राणा सांगा ने बाबर को भारत से खदेड़ने का निश्चय किया। उन्होंने 'पाटी-पेरवन' नामक प्राचीन राजपूत परंपरा का पालन करते हुए सभी राजपूत राजाओं और सरदारों को विदेशी आक्रांता के विरुद्ध एकजुट होने का निमंत्रण भेजा। मारवाड़, आमेर, ग्वालियर, अजमेर, चंदेरी समेत कई राजपूत शासक अपनी सेनाओं के साथ सांगा के झंडे तले एकत्र हुए। महमूद लोदी (इब्राहिम लोदी का भाई) और हसन खाँ मेवाती जैसे अफगान सरदार भी इस गठबंधन में शामिल थे। यह एक विशाल संयुक्त मोर्चा था।
"राणा सांगा ने उस समय के भारत के लगभग सभी महत्वपूर्ण शासकों को बाबर के विरुद्ध एकजुट कर लिया था। यह उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता और व्यक्तिगत प्रभाव का प्रमाण था।"
युद्ध का घटनाक्रम और सांगा की वीरता
शारीरिक रूप से इतने अक्षम होते हुए भी राणा सांगा स्वयं इस विशाल सेना का नेतृत्व कर रहे थे। युद्ध के प्रारंभ में राजपूतों के पारंपरिक शौर्य और आक्रमण ने बाबर की सेना में खलबली मचा दी। बाबर की सेना का मनोबल टूटने लगा था।
लेकिन बाबर एक चतुर सेनानायक था। उसने अपनी सेना को तुलुगमा युद्ध पद्धति (सेना को विभिन्न टुकड़ियों में बांटकर flanks से आक्रमण करना) में सजाया और उसके पास तोपखाना था, जो राजपूतों के लिए नया था। उसने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए शराब के प्याले तोड़ दिए, शराब न पीने की कसम खाई और इस युद्ध को 'जिहाद' (धर्मयुद्ध) का नारा दिया।
युद्ध भीषण रूप से चल रहा था, तभी एक तीर राणा सांगा के सिर में लगा और वे मूर्छित हो गए। उन्हें युद्धभूमि से सुरक्षित बाहर निकाला गया। उनके स्थान पर झाला अज्जा ने मेवाड़ का राजचिह्न धारण कर युद्ध का नेतृत्व किया, लेकिन सांगा की अनुपस्थिति और बाबर की बेहतर युद्ध तकनीक (विशेषकर तोपों) के कारण राजपूत सेना में भगदड़ मच गई। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, रायसेन के शासक सिलहदी तंवर का युद्ध के दौरान बाबर से मिल जाना भी हार का एक कारण बना। अंततः, इस निर्णायक युद्ध में बाबर की विजय हुई।
रोचक तथ्य: खानवा के युद्ध से पहले, बाबर की सेना राणा सांगा की ख्याति और राजपूतों की वीरता से इतनी भयभीत थी कि कई सैनिक वापस काबुल लौटना चाहते थे। बाबर को अपने सैनिकों में जोश भरने के लिए कुरान पर हाथ रखकर कसम खिलानी पड़ी और शराब न पीने का वचन देना पड़ा था!
पराजय के बाद राणा सांगा का संकल्प और रहस्यमयी मृत्यु
खानवा में घायल होने के बाद जब राणा सांगा को होश आया और उन्हें पराजय का समाचार मिला, तो वे अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि जब तक वे बाबर को पराजित नहीं कर देते, वे चित्तौड़ वापस नहीं लौटेंगे। वे बाबर से एक और युद्ध की तैयारी करने लगे।
लेकिन उनके कुछ सामंत, जो बाबर की शक्ति से भयभीत थे और एक और विनाशकारी युद्ध नहीं चाहते थे, कथित तौर पर उन्हें विष दे दिया। इस प्रकार, 30 जनवरी, 1528 को कालपी नामक स्थान पर भारत के इस महान योद्धा का दुखद अंत हो गया। उनका अंतिम संस्कार मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में किया गया, जहाँ आज भी उनकी समाधि स्थित है।
राणा सांगा की वीरता के वो किस्से जो आपको प्रेरित करेंगे!
राणा सांगा सिर्फ एक योद्धा नहीं थे, वे अपने सैनिकों के लिए आदर्श और प्रेरणास्रोत थे। उनके जीवन से जुड़े कुछ प्रेरक प्रसंग:
- वे कभी युद्धभूमि में पीठ नहीं दिखाते थे, चाहे स्थिति कितनी भी विकट क्यों न हो। घायल अवस्था में भी वे लड़ने को तत्पर रहते थे।
- उनके शरीर का हर घाव उनकी बहादुरी का पदक था। वे इन घावों को अपनी कमजोरी नहीं, बल्कि अपना गौरव मानते थे।
- उनका प्रण था कि जब तक बाबर को भारत से खदेड़ नहीं देते, वे चित्तौड़ की पवित्र भूमि पर कदम नहीं रखेंगे। यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और संकल्प का परिचायक है।
- अनेक राजपूत शासकों को एक झंडे के नीचे लाना उनकी संगठनात्मक क्षमता और दूरदर्शिता को दर्शाता है।
आज के युवाओं के लिए राणा सांगा से क्या सीख?
राणा सांगा का जीवन आधुनिक पीढ़ी के लिए एक महान प्रेरणा है। उनसे हम सीखते हैं:
- अदम्य साहस: शारीरिक बाधाएँ और जीवन की कठिनाइयाँ आपके संकल्प को नहीं तोड़ सकतीं।
- सच्चा नेतृत्व: एक सच्चा नेता विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी टीम का मार्गदर्शन करता है और उनमें विश्वास जगाता है।
- दृढ़ संकल्प: हार के बाद भी निराश न होकर अपने लक्ष्य के प्रति पुनः समर्पित होना ही सच्ची विजय है।
- राष्ट्रभक्ति: मातृभूमि और अपने मूल्यों की रक्षा सर्वोपरि है, जिसके लिए कोई भी बलिदान कम है।
- एकता की शक्ति: संगठित होकर बड़ी से बड़ी चुनौती का सामना किया जा सकता है।
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- पूरा नाम: महाराणा संग्राम सिंह प्रथम
- राजवंश: सिसोदिया (गुहिलोत) (मेवाड़)
- पिता: राणा रायमल
- शासनकाल: 1508 ई. से 1528 ई.
- प्रमुख युद्ध:
- खातौली का युद्ध (1517 ई., इब्राहिम लोदी के विरुद्ध, सांगा विजयी)
- बाड़ी का युद्ध (1518 ई., इब्राहिम लोदी के विरुद्ध, सांगा विजयी)
- गागरोन का युद्ध (1519 ई., महमूद खिलजी द्वितीय (मालवा) के विरुद्ध, सांगा विजयी)
- बयाना का युद्ध (फरवरी 1527 ई., बाबर की सेना के विरुद्ध, सांगा विजयी)
- खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527 ई., बाबर के विरुद्ध, बाबर विजयी)
- उपाधियाँ/अन्य नाम: हिन्दूपत, सैनिकों का भग्नावशेष
- शरीर पर घावों की अनुमानित संख्या: 80
- मृत्यु: 30 जनवरी, 1528 (कालपी में, विष देने के कारण)
- समाधि: मांडलगढ़ (भीलवाड़ा, राजस्थान)
- खानवा युद्ध में बाबर द्वारा प्रयुक्त नीतियाँ: तुलुगमा पद्धति, तोपखाना (उस्मानी/रूमी विधि)।
- खानवा युद्ध में सांगा का साथ छोड़ने वाला (विश्वासघाती): सिलहदी तंवर (रायसेन का शासक) - कुछ इतिहासकारों के अनुसार।
निष्कर्ष: एक योद्धा जो हारकर भी अमर हो गया!
भले ही खानवा के युद्ध का परिणाम राणा सांगा के पक्ष में नहीं रहा और भारत का राजनीतिक भविष्य बदल गया, लेकिन उनकी वीरता, उनका अदम्य साहस, उनकी संगठनात्मक क्षमता और उनका कभी न हार मानने वाला जज़्बा इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। राणा सांगा सिर्फ एक ऐतिहासिक चरित्र नहीं, बल्कि साहस, संकल्प, देशभक्ति और जुझारूपन की एक जलती हुई मशाल हैं, जो सदियों तक भारतवासियों को रास्ता दिखाती रहेगी। वे वास्तव में उन योद्धाओं में से थे जो हारकर भी जीत जाते हैं, क्योंकि उनकी कीर्ति पराजय से कहीं अधिक विशाल होती है।
तो दोस्तों, कैसी लगी मेवाड़ के इस महान 'हिन्दूपत' योद्धा की विस्तृत शौर्यगाथा? क्या आपके रोंगटे खड़े हुए उनके 80 घावों की कहानी सुनकर? कमेंट करके अपने विचार जरूर बताएं और इस लेख को अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें ताकि वे भी जान सकें राणा सांगा की इस 'अस्सी घावों' वाली बेमिसाल वीरता को!
राणा सांगा पर आ चुके अथवा संभावित प्रश्नोत्तरी
अति लघु उत्तरीय / वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. राणा सांगा का वास्तविक नाम क्या था?
उत्तर: संग्राम सिंह
2. राणा सांगा किस वंश के शासक थे?
उत्तर: सिसोदिया (गुहिल) वंश
3. राणा सांगा का शासनकाल कब से कब तक रहा?
उत्तर: 1509 ई. से 1528 ई. तक
4. राणा सांगा के पिता का नाम क्या था?
उत्तर: राणा रायमल
5. 'हिन्दू पथ' या 'हिन्दूपत बादशाह' की उपाधि किस शासक को दी गई थी?
उत्तर: राणा सांगा
6. राणा सांगा के शरीर पर कितने घाव थे, जिसके कारण उन्हें 'सैनिकों का भग्नावशेष' कहा जाता है?
उत्तर: लगभग 80 घाव
7. खातोली का युद्ध कब और किसके बीच हुआ?
उत्तर: 1517 ई. में, राणा सांगा और इब्राहिम लोदी के बीच
8. बाड़ी (धौलपुर) का युद्ध कब और किसके बीच हुआ?
उत्तर: 1518 ई. में, राणा सांगा और इब्राहिम लोदी के बीच
9. गागरोन का युद्ध कब और किसके बीच हुआ?
उत्तर: 1519 ई. में, राणा सांगा और मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय के बीच
10. खानवा का युद्ध कब और किसके बीच हुआ?
उत्तर: 17 मार्च, 1527 ई. को, राणा सांगा और बाबर के बीच
11. बयाना का युद्ध कब और किसके बीच हुआ?
उत्तर: फरवरी 1527 ई. में, राणा सांगा और बाबर की सेना के बीच (सांगा विजयी)
12. खानवा के युद्ध में राणा सांगा का साथ देने वाले मारवाड़ के शासक कौन थे?
उत्तर: राव गांगा (उनके पुत्र मालदेव ने नेतृत्व किया)
13. खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से विश्वासघात करने वाला सरदार कौन था?
उत्तर: सलहदी तंवर
14. बाबर ने खानवा के युद्ध को क्या घोषित किया था?
उत्तर: जिहाद (धर्मयुद्ध)
15. 'पाती परवन' की परंपरा किस राजपूत शासक ने निभाई थी?
उत्तर: राणा सांगा
16. राणा सांगा की मृत्यु कहाँ हुई?
उत्तर: बसवा (दौसा) में घायल हुए, कालपी (उत्तर प्रदेश) के पास विष देने से मृत्यु हुई
17. राणा सांगा का स्मारक (छतरी) कहाँ स्थित है?
उत्तर: मांडलगढ़ (भीलवाड़ा)
18. खानवा के युद्ध में घायल होने के बाद राणा सांगा को युद्ध मैदान से बाहर कौन ले गया और उनका राजचिह्न किसने धारण किया?
उत्तर: झाला अज्जा (उन्होंने सांगा का राजचिह्न धारण कर युद्ध जारी रखा)
19. राणा सांगा ने मालवा के किस सुल्तान को बंदी बनाया था?
उत्तर: महमूद खिलजी द्वितीय (गागरोन के युद्ध के बाद)
20. राणा सांगा के समय दिल्ली का सुल्तान कौन था?
उत्तर: सिकंदर लोदी और बाद में इब्राहिम लोदी
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. राणा सांगा को 'सैनिकों का भग्नावशेष' क्यों कहा जाता है?
उत्तर: राणा सांगा ने अपने जीवनकाल में अनेक युद्ध लड़े, जिनमें उनके शरीर पर लगभग 80 घाव लगे थे। उनकी एक आँख फूट गई थी, एक हाथ कट गया था और एक पैर लंगड़ा हो गया था। इतने घावों के बावजूद उनका युद्ध उत्साह कम नहीं हुआ, इसी कारण कर्नल जेम्स टॉड ने उन्हें 'सैनिकों का भग्नावशेष' कहा है।
2. 'पाती परवन' से आप क्या समझते हैं? इसका खानवा के युद्ध में क्या महत्व था?
उत्तर: 'पाती परवन' एक प्राचीन राजपूत परंपरा थी, जिसके तहत किसी बड़े युद्ध के अवसर पर राजा द्वारा अन्य राजपूत शासकों और सामंतों को अपनी सहायता के लिए पत्र (पाती) भेजकर आमंत्रित किया जाता था। राणा सांगा ने खानवा के युद्ध से पूर्व बाबर के विरुद्ध इसी परंपरा का पालन करते हुए अधिकांश राजपूताना के शासकों को विदेशी आक्रांता के विरुद्ध एकजुट किया था। यह राजपूत एकता का प्रतीक था, यद्यपि यह अंततः सफल नहीं हो सका।
3. खानवा के युद्ध में राणा सांगा की पराजय के प्रमुख कारण क्या थे? (कोई तीन)
उत्तर:
- बाबर की उन्नत युद्धनीति: बाबर ने तुलुगमा पद्धति, तोपखाने और बंदूकों का प्रभावी प्रयोग किया, जिसका राजपूतों के पास कोई तोड़ नहीं था।
- सलहदी तंवर का विश्वासघात: युद्ध के नाजुक समय में सलहदी तंवर का बाबर से जा मिलना सांगा की सेना के मनोबल के लिए घातक सिद्ध हुआ।
- नेतृत्व में बिखराव: विभिन्न राजपूत शासकों की सेनाएँ अपने-अपने नेताओं के अधीन लड़ रही थीं, जिससे केंद्रीय कमान और समन्वय का अभाव था। सांगा के घायल होने पर नेतृत्व का संकट और गहरा गया।
4. राणा सांगा की प्रमुख सैनिक उपलब्धियों का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर: राणा सांगा एक महान योद्धा थे। उनकी प्रमुख सैनिक उपलब्धियाँ थीं:
- दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इब्राहिम लोदी को खातोली (1517) और बाड़ी (1518) के युद्धों में पराजित करना।
- मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय को गागरोन (1519) के युद्ध में पराजित कर बंदी बनाना।
- गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह द्वितीय के साथ संघर्ष और ईडर आदि पर अधिकार।
- बाबर की सेना को बयाना (1527) के युद्ध में पराजित करना।
5. राणा सांगा और बाबर के मध्य संघर्ष के क्या कारण थे?
उत्तर:
- महत्वाकांक्षाओं का टकराव: दोनों ही शासक उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे।
- राजपूत-अफगान गठबंधन का आरोप: बाबर ने सांगा पर इब्राहिम लोदी के विरुद्ध सहायता का वचन देकर मुकरने का आरोप लगाया, जबकि सांगा के अनुसार बाबर ने कालपी, बयाना और धौलपुर पर अधिकार कर वादा तोड़ा।
- साम्राज्य विस्तार: बाबर भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखना चाहता था, जबकि सांगा दिल्ली पर हिन्दू प्रभुत्व पुनः स्थापित करने के आकांक्षी थे।
- बयाना पर अधिकार: बयाना के युद्ध में सांगा की विजय ने बाबर को प्रत्यक्ष चुनौती दी, जिससे खानवा का युद्ध अवश्यंभावी हो गया।
6. राणा सांगा की मृत्यु की परिस्थितियाँ क्या थीं?
उत्तर: खानवा के युद्ध (1527) में बाबर के विरुद्ध लड़ते हुए राणा सांगा गंभीर रूप से घायल हो गए। उन्हें युद्धक्षेत्र से बसवा (दौसा) ले जाया गया। स्वस्थ होने पर उन्होंने पुनः बाबर से युद्ध करने की प्रतिज्ञा की। जब वे काल्पी (उत्तर प्रदेश) के निकट पहुँचे, तो उनके ही कुछ सामंतों ने, जो बाबर से और युद्ध नहीं चाहते थे, उन्हें विष दे दिया, जिससे 30 जनवरी, 1528 को उनकी मृत्यु हो गई।
7. राणा सांगा द्वारा लड़े गए प्रमुख युद्धों की सूची बनाइए।
उत्तर:
- खातोली का युद्ध (1517) - इब्राहिम लोदी के विरुद्ध (विजय)
- बाड़ी का युद्ध (1518) - इब्राहिम लोदी के विरुद्ध (विजय)
- गागरोन का युद्ध (1519) - महमूद खिलजी द्वितीय (मालवा) के विरुद्ध (विजय)
- ईडर के युद्ध (गुजरात सल्तनत के साथ कई संघर्ष)
- बयाना का युद्ध (फरवरी 1527) - बाबर की सेना के विरुद्ध (विजय)
- खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527) - बाबर के विरुद्ध (पराजय)
दीर्घ उत्तरीय / विश्लेषणात्मक प्रश्न
1. राणा सांगा के राजनीतिक एवं सैन्य जीवन का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर: (विश्लेषणात्मक उत्तर अपेक्षित)
- राजनीतिक जीवन: राणा सांगा ने मेवाड़ की खोई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया। उन्होंने 'पाती परवन' द्वारा राजपूत राज्यों को एकजुट करने का प्रयास किया, जो उनकी दूरदर्शिता का परिचायक था। दिल्ली, मालवा और गुजरात के सुल्तानों पर विजय प्राप्त कर उन्होंने उत्तर भारत में राजपूत शक्ति का परचम लहराया। वे 'हिन्दूपत' के रूप में प्रसिद्ध हुए।
- सैन्य जीवन: सांगा एक वीर, साहसी और कुशल सेनानायक थे। उन्होंने खातोली, बाड़ी, गागरोन जैसे महत्वपूर्ण युद्धों में विजय प्राप्त की। उनकी सेना में परंपरागत युद्ध शैली का प्राधान्य था। हालांकि, खानवा में बाबर की नवीन युद्ध तकनीक (तोपखाना, तुलुगमा) के सामने उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। उनके शरीर पर 80 घाव उनके अदम्य साहस और युद्धों में सक्रिय भागीदारी के प्रमाण हैं।
- मूल्यांकन: सांगा मध्यकालीन भारत के एक महानतम योद्धा थे। उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल बाबर की शक्ति का सही आंकलन न कर पाना और राजपूत सेनाओं में पूर्ण समन्वय स्थापित न कर पाना रही। फिर भी, उनका शासनकाल मेवाड़ के गौरव का प्रतीक है और उन्होंने भारतीय इतिहास पर अमिट छाप छोड़ी।
2. खानवा के युद्ध के कारणों, घटनाओं और परिणामों का विस्तृत वर्णन करें। भारतीय इतिहास में इसका क्या महत्व है?
उत्तर: (विश्लेषणात्मक उत्तर अपेक्षित)
- कारण:
- राणा सांगा और बाबर दोनों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएं।
- सांगा द्वारा बाबर पर संधि उल्लंघन का आरोप और बाबर द्वारा सांगा पर।
- बयाना में सांगा की विजय से बाबर का चिंतित होना।
- सांगा द्वारा दिल्ली पर हिन्दू प्रभुत्व स्थापित करने का स्वप्न।
- बाबर द्वारा भारत में स्थायी मुगल साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य।
- घटनाएँ:
- 17 मार्च, 1527 को खानवा (भरतपुर के निकट) में युद्ध।
- बाबर द्वारा तोपखाने, तुलुगमा युद्ध पद्धति का प्रयोग।
- राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूतों का शौर्यपूर्ण किन्तु परंपरागत युद्ध।
- सलहदी तंवर का विश्वासघात।
- राणा सांगा का घायल होना और झाला अज्जा द्वारा नेतृत्व संभालना।
- राजपूतों की पराजय।
- परिणाम:
- भारत में मुगल साम्राज्य की नींव सुदृढ़ हुई।
- राजपूतों की शक्ति को गहरा धक्का लगा और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा कुछ समय के लिए दब गई।
- उत्तर भारत की राजनीतिक शक्ति का केंद्र आगरा-दिल्ली बन गया।
- युद्ध तकनीक में बदलाव आया, तोपखाने का महत्व बढ़ा।
- ऐतिहासिक महत्व: खानवा का युद्ध पानीपत के प्रथम युद्ध से भी अधिक निर्णायक माना जाता है क्योंकि इसने भारत में मुगल शासन को वास्तविक रूप से स्थापित किया और राजपूतों के दिल्ली पर अधिकार के अंतिम बड़े प्रयास को विफल कर दिया। इसने भारतीय इतिहास की दिशा बदल दी।
3. राणा सांगा की राजपूत एकता की नीति कहाँ तक सफल रही? विवेचना कीजिए।
उत्तर: (विश्लेषणात्मक उत्तर अपेक्षित)
- सफलताएँ:
- राणा सांगा ने 'पाती परवन' के माध्यम से बाबर जैसे शक्तिशाली विदेशी आक्रांता के विरुद्ध अधिकांश राजपूताना के शासकों (मारवाड़, आमेर, बीकानेर, मेड़ता, चंदेरी आदि) को एक झंडे के नीचे लाने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।
- यह मध्यकाल में राजपूतों की राजनीतिक एकता का एक दुर्लभ उदाहरण था।
- इस एकता ने प्रारंभ में बाबर की सेना का मनोबल गिराया, जैसा कि बयाना युद्ध के परिणाम से स्पष्ट है।
- विफलताएँ/सीमाएँ:
- यह एकता स्थायी और गहरी सिद्ध नहीं हुई। युद्धभूमि में विभिन्न राजपूत दलों में पूर्ण समन्वय और एक केंद्रीय कमान का अभाव था।
- व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ और आपसी अविश्वास पूर्णतः समाप्त नहीं हो पाए थे, जैसा सलहदी तंवर के विश्वासघात से प्रकट होता है।
- खानवा की पराजय के बाद यह राजपूत संघ बिखर गया और पुनः वैसा व्यापक गठबंधन नहीं बन सका।
- सांगा की मृत्यु के बाद राजपूतों में नेतृत्व का अभाव हो गया।
- विवेचना: राणा सांगा का राजपूत एकता का प्रयास प्रशंसनीय और तत्कालीन परिस्थितियों में एक बड़ी उपलब्धि थी। इसने राजपूतों की सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन किया। यद्यपि यह एकता युद्ध में निर्णायक विजय नहीं दिला सकी और स्थायी नहीं रही, तथापि यह सांगा की राजनीतिक दूरदर्शिता और उनके व्यापक प्रभाव को दर्शाती है। इसकी विफलता के पीछे राजपूतों की परंपरागत युद्ध शैली, आंतरिक कमजोरियाँ और बाबर की श्रेष्ठ सैन्य रणनीति मुख्य कारण थे।
4. "राणा सांगा अपने समय के सबसे शक्तिशाली हिन्दू शासक थे।" इस कथन की समीक्षा कीजिए।
उत्तर: (विश्लेषणात्मक उत्तर अपेक्षित)
- पक्ष में तर्क:
- राणा सांगा ने दिल्ली, मालवा और गुजरात के मुस्लिम सुल्तानों को युद्धों में पराजित किया था, जो उनकी सैन्य शक्ति का प्रमाण है।
- उन्होंने लगभग समस्त राजपूताना को अपने नेतृत्व में एकजुट किया था, जो उनके प्रभाव और स्वीकार्यता को दर्शाता है।
- 'हिन्दूपत' की उपाधि उनके समकालीन हिन्दू शासकों में सर्वोच्च स्थान को इंगित करती है।
- उनके राज्य की सीमाएँ विस्तृत थीं और उनकी सेना विशाल थी।
- दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य के कृष्णदेव राय एक अन्य शक्तिशाली हिन्दू शासक थे, परन्तु उत्तर भारत में सांगा का प्रभुत्व निर्विवाद था।
- विपक्ष में या सीमाएँ:
- खानवा में बाबर से पराजय उनकी अंतिम और निर्णायक हार थी, जिसने उनकी शक्ति को कम किया।
- राजपूत एकता स्थायी नहीं रह सकी, जो उनकी संगठनात्मक क्षमता की एक सीमा हो सकती है।
- उनकी शक्ति मुख्यतः सैन्य विजयों पर आधारित थी, प्रशासनिक सुधारों पर उतना ध्यान नहीं दिया गया।
- समीक्षा: उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहना उचित है कि राणा सांगा 16वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में उत्तर भारत के सबसे शक्तिशाली हिन्दू शासक थे। उनकी सैन्य उपलब्धियाँ, राजपूत राज्यों पर उनका प्रभाव और मुस्लिम सल्तनतों को दी गई चुनौती इस कथन की पुष्टि करते हैं। विजयनगर के कृष्णदेव राय दक्षिण भारत में उनके समकक्ष शक्तिशाली हिन्दू शासक थे, परन्तु अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में दोनों ही शिखर पर थे। खानवा की पराजय के बावजूद, उनके जीवनकाल में उनकी शक्ति अद्वितीय थी।
5. यदि राणा सांगा खानवा का युद्ध जीत जाते, तो उत्तर भारत की राजनीति पर क्या संभावित प्रभाव पड़ते? विश्लेषण कीजिए।
उत्तर: (विश्लेषणात्मक उत्तर अपेक्षित)
- मुगल साम्राज्य की स्थापना में बाधा: बाबर की पराजय से भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना या तो रुक जाती या बहुत विलंबित हो जाती। बाबर को संभवतः मध्य एशिया लौटना पड़ता।
- राजपूत प्रभुत्व की पुनर्स्थापना: दिल्ली पर राजपूतों का (संभवतः सांगा के नेतृत्व में) अधिकार स्थापित हो सकता था, जिससे उत्तर भारत में हिन्दू शासन की पुनर्स्थापना होती।
- राजनीतिक शक्ति संतुलन में बदलाव: लोदी वंश के पतन के बाद उत्पन्न शक्ति शून्यता को राजपूत भरते, न कि मुगल। इससे अफगान और राजपूत शक्तियों के बीच नया संघर्ष प्रारंभ हो सकता था।
- सांस्कृतिक प्रभाव: हिन्दू कला, स्थापत्य और संस्कृति को अधिक राजकीय संरक्षण मिलता।
- क्षेत्रीय शक्तियों का उदय: यदि सांगा एक सुदृढ़ केंद्रीय सत्ता स्थापित न कर पाते, तो विभिन्न राजपूत और अन्य क्षेत्रीय शक्तियाँ अधिक स्वतंत्रता के लिए प्रयास कर सकती थीं, जिससे राजनीतिक अस्थिरता भी उत्पन्न हो सकती थी।
- दीर्घकालिक प्रभाव: भारत का последующий इतिहास भिन्न होता। मुगलकालीन भारत की प्रशासनिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विरासत शायद वैसी न होती जैसी आज है।
यह विश्लेषण काल्पनिक है, परन्तु यह खानवा युद्ध के महत्व को रेखांकित करता है। सांगा की विजय उत्तर भारत के इतिहास को एक नई दिशा दे सकती थी।
6. राणा सांगा के चरित्र और व्यक्तित्व की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर: (विश्लेषणात्मक उत्तर अपेक्षित)
- अदम्य साहसी और वीर योद्धा: उनके शरीर पर 80 घाव, एक आँख, एक हाथ और एक पैर का न होना उनके साहस और युद्धों में स्वयं आगे रहने की प्रवृत्ति का प्रमाण है।
- कुशल सेनानायक: खातोली, बाड़ी, गागरोन जैसी विजयें उनकी सैन्य कुशलता दर्शाती हैं।
- महत्वाकांक्षी: वे मेवाड़ के गौरव को पुनर्स्थापित कर उत्तर भारत में एकछत्र हिन्दू राज्य स्थापित करना चाहते थे।
- संगठनकर्ता: 'पाती परवन' द्वारा राजपूतों को संगठित करना उनकी नेतृत्व क्षमता और राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचायक है।
- दृढ़ निश्चयी: घायल होने और पराजयों के बाद भी उनका उत्साह कम नहीं होता था। खानवा में घायल होने के बाद भी वे बाबर से पुनः युद्ध करना चाहते थे।
- परंपरावादी: उन्होंने परंपरागत युद्ध शैली पर अधिक भरोसा किया और नवीन तकनीकों (जैसे तोपखाना) को अपनाने में देर की या महत्व नहीं दिया।
- उदार और क्षमाशील: मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय को पराजित करने के बाद उसे ससम्मान मुक्त करना उनकी उदारता का उदाहरण है।
- 'हिन्दूपत' के रूप में ख्याति: यह उनके समकालीन समाज में उनके प्रति सम्मान और उनकी हिन्दू धर्म रक्षक की छवि को दर्शाता है।
कुल मिलाकर, राणा सांगा एक असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे, जिनमें शौर्य, साहस, नेतृत्व क्षमता और राजनीतिक महत्वाकांक्षा का अद्भुत समन्वय था।
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