RBSE 12th History 2024 Complete Solution | राजस्थान बोर्ड इतिहास संपूर्ण हल
राजस्थान बोर्ड उच्च माध्यमिक परीक्षा 2024
इतिहास (History) - प्रश्न पत्र संपूर्ण हल
समय: 3 घंटे 15 मिनट | पूर्णांक: 80 | कुल प्रश्न: 22
खंड - अ (Section - A)
प्रश्न 1: बहुविकल्पीय प्रश्न
i) सिंधु सभ्यता का स्थल, कालीबंगन, निम्न में से किस राज्य में स्थित है?
A) उत्तरप्रदेश
B) राजस्थान
C) पंजाब
D) हरियाणा
✓ उत्तर: B) राजस्थान
कालीबंगन राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में घग्गर नदी के किनारे स्थित है। यह सिंधु घाटी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण स्थल है जहां से जुते हुए खेत के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं। यहां दो टीले पाए गए हैं - एक पर दुर्ग और दूसरे पर नगर के अवशेष मिले हैं।
ii) मोहनजोदड़ो बस्ती कितने भागों में विभाजित थी?
A) दो
B) तीन
C) चार
D) पांच
✓ उत्तर: A) दो
मोहनजोदड़ो बस्ती दो प्रमुख भागों में विभाजित थी - दुर्ग भाग और निचला शहर। दुर्ग भाग पश्चिम में ऊंचे चबूतरे पर बना था जहां महत्वपूर्ण सार्वजनिक भवन जैसे विशाल स्नानागार, अन्नागार और सभा भवन स्थित थे। निचला शहर पूर्व में स्थित था जहां आम लोगों के आवास थे।
iii) तीर्थयात्री ह्वेन-त्सांग किस देश से आए थे?
A) चीन
B) यूनान
C) फ्रांस
D) जर्मनी
✓ उत्तर: A) चीन
ह्वेन-त्सांग चीनी यात्री था जो 629-645 ईस्वी में भारत आया। उसने हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत का भ्रमण किया और नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। उसकी पुस्तक सी-यू-की में भारत का विस्तृत विवरण है।
iv) गौतमीपुत्र सातकर्णि किस वंश के प्रसिद्ध शासक थे?
A) शक
B) कुषाण
C) सातवाहन
D) मौर्य
✓ उत्तर: C) सातवाहन
गौतमीपुत्र सातकर्णि सातवाहन वंश के सबसे महान शासक थे (106-130 ईस्वी)। उन्होंने शक शासकों को पराजित किया। नासिक के गुहालेख में उनकी उपलब्धियों का वर्णन है।
वंश | प्रमुख शासक | शासन काल | क्षेत्र |
---|---|---|---|
सातवाहन | गौतमीपुत्र सातकर्णि | 106-130 ईस्वी | दक्षिण भारत |
शक | रुद्रदामन प्रथम | 130-150 ईस्वी | पश्चिमी भारत |
कुषाण | कनिष्क | 78-103 ईस्वी | उत्तर भारत |
मौर्य | अशोक | 268-232 ईसा पूर्व | लगभग संपूर्ण भारत |
v) जैन परंपरा के अनुसार महावीर से पहले कितने तीर्थंकर हो चुके थे?
A) 21
B) 22
C) 23
D) 24
✓ उत्तर: C) 23
जैन धर्म के अनुसार महावीर 24वें और अंतिम तीर्थंकर थे। उनसे पहले 23 तीर्थंकर हो चुके थे। पहले तीर्थंकर ऋषभदेव और 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे।
vi) निम्न में से कौनसा युग्म सुमेलित नहीं है?
यात्री | देश |
---|---|
A) फ्रांस्वा बर्नियर | फ्रांस |
B) इब्न बतूता | मोरक्को |
C) पीटर मुंडी | जर्मनी |
D) मार्को पोलो | इटली |
✓ उत्तर: C) पीटर मुंडी - जर्मनी
पीटर मुंडी इंग्लैंड का यात्री था, जर्मनी का नहीं। वह 17वीं शताब्दी में भारत आया और ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम करता था। शेष सभी युग्म सही हैं।
vii) "ट्रैवल्स इन द मुगल एंपायर" ग्रंथ किसने लिखा?
A) पीटर मुंडी
B) दुआर्ते बार्बोसा
C) फ्रांस्वा बर्नियर
D) एंतोनियो मोनसेरात
✓ उत्तर: C) फ्रांस्वा बर्नियर
फ्रांस्वा बर्नियर फ्रांसीसी चिकित्सक और दार्शनिक था जो 1656-1668 तक भारत में रहा। उसने औरंगजेब के शासनकाल का प्रत्यक्षदर्शी विवरण दिया। उसकी पुस्तक में मुगल दरबार, प्रशासन और समाज की विस्तृत जानकारी है।
viii) इब्न बतूता को किस शहर का काजी या न्यायाधीश नियुक्त किया गया?
A) दिल्ली
B) दौलताबाद
C) औरंगाबाद
D) आगरा
✓ उत्तर: A) दिल्ली
इब्न बतूता को मुहम्मद बिन तुगलक ने दिल्ली का काजी नियुक्त किया। वह 1333 ईस्वी में भारत आया और लगभग 8 वर्षों तक दिल्ली सल्तनत में रहा। उसने अपनी पुस्तक रेहला में दिल्ली के न्याय प्रशासन का विस्तृत वर्णन किया।
ix) विजयनगर साम्राज्य की स्थापना किस वर्ष हुई थी?
A) 1330
B) 1336
C) 1340
D) 1345
✓ उत्तर: B) 1336
विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1336 ईस्वी में हरिहर और बुक्का द्वारा हुई। ये संगम वंश के संस्थापक थे। राजधानी हम्पी में तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थापित की गई। यह साम्राज्य लगभग 300 वर्षों तक रहा और 1565 में तालीकोटा युद्ध के बाद पतन हुआ।
x) "यवन" शब्द का प्रयोग किनके लिए किया जाता था?
A) यूनानियों के लिए
B) अंग्रेजों के लिए
C) फ्रांसिसियों के लिए
D) शकों के लिए
✓ उत्तर: A) यूनानियों के लिए
यवन शब्द का प्रयोग यूनानियों या ग्रीक लोगों के लिए किया जाता था। यह शब्द आयोनियन से व्युत्पन्न है। सिकंदर के आक्रमण के बाद यूनानियों का भारत से संपर्क बढ़ा। कालांतर में इसका अर्थ विस्तृत हो गया।
xi) बंगाल में इस्तमरारी बंदोबस्त कब लागू किया गया?
A) 1790
B) 1793
C) 1795
D) 1799
✓ उत्तर: B) 1793
बंगाल में इस्तमरारी बंदोबस्त या स्थायी भूमि व्यवस्था 1793 में लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा लागू की गई। जमींदारों को भूमि का स्थायी मालिक बना दिया गया और एक निश्चित राशि सरकार को कर के रूप में देनी होती थी।
xii) निम्न में से कौनसी घटना सबसे पहले हुई?
A) भारत छोड़ो आंदोलन
B) द्वितीय गोलमेज सम्मेलन
C) असहयोग आंदोलन
D) जलियांवाला बाग हत्याकांड
✓ उत्तर: D) जलियांवाला बाग हत्याकांड
जलियांवाला बाग हत्याकांड - जनरल डायर ने अमृतसर में निहत्थे लोगों पर गोलियां चलवाईं
असहयोग आंदोलन - गांधीजी के नेतृत्व में
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन - लंदन में आयोजित
भारत छोड़ो आंदोलन - करो या मरो का नारा
xiii) संविधान सभा के कुल कितने सत्र हुए थे?
A) 9
B) 11
C) 13
D) 15
✓ उत्तर: B) 11
संविधान सभा के कुल 11 सत्र हुए। पहला सत्र 9 दिसंबर 1946 को शुरू हुआ और अंतिम सत्र 24 जनवरी 1950 को समाप्त हुआ। कुल 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन में संविधान का निर्माण पूरा हुआ। 26 नवंबर 1949 को संविधान अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया।
xiv) संविधान निर्माण के समय भारत सरकार के संवैधानिक सलाहकार कौन थे?
A) एस एन मुखर्जी
B) जवाहरलाल नेहरू
C) बी एन राव
D) बी आर अंबेडकर
✓ उत्तर: C) बी एन राव
बेनेगल नरसिंह राव (बी एन राव) संविधान निर्माण के समय भारत सरकार के संवैधानिक सलाहकार थे। उन्होंने विभिन्न देशों के संविधानों का अध्ययन किया और संविधान सभा को महत्वपूर्ण सुझाव दिए। डॉ बी आर अंबेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे।
प्रश्न 2: रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए
i) सिंधु सभ्यता में बाट सामान्यतः .................. नामक पत्थर से बनाए जाते थे।
✓ उत्तर: चर्ट
सिंधु सभ्यता में बाट चर्ट नामक पत्थर से बनाए जाते थे। ये घनाकार होते थे और विभिन्न आकारों में मिले हैं। इनका वजन एक निश्चित अनुपात में होता था - 1, 2, 4, 8, 16, 32, 64। यह मानकीकृत माप-तौल प्रणाली को दर्शाता है।
ii) मंदसौर को पहले ........... के नाम से जाना जाता था।
✓ उत्तर: दशपुर
मंदसौर को प्राचीन काल में दशपुर के नाम से जाना जाता था। यह मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में स्थित था। गुप्तकाल में यह एक समृद्ध व्यापारिक केंद्र था। यहां से प्राप्त अभिलेखों में रेशम बुनकरों के संघ का उल्लेख मिलता है।
iii) ................ दर्शन के अनुसार विश्व अनित्य है और लगातार बदल रहा है।
✓ उत्तर: बौद्ध
बौद्ध दर्शन के अनुसार विश्व अनित्य है और लगातार बदल रहा है। महात्मा बुद्ध ने अनित्यता का सिद्धांत दिया जिसके अनुसार संसार में कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है। यह बौद्ध दर्शन के तीन लक्षणों में से एक है - अनित्य, दुख और अनात्म।
iv) हम्पी के भग्नावशेष 1800 ईस्वी में एक अभियंता तथा पुरातत्ववेत्ता ................. द्वारा प्रकाश में लाए गए थे।
✓ उत्तर: कॉलिन मैकेंजी
हम्पी के भग्नावशेष 1800 ईस्वी में कॉलिन मैकेंजी नामक स्कॉटिश अभियंता और पुरातत्ववेत्ता द्वारा प्रकाश में लाए गए। वह ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम करता था। उसने हम्पी के खंडहरों का विस्तृत सर्वेक्षण किया और मानचित्र तैयार किए।
v) 1860 के दशक से पहले ब्रिटेन में कच्चे माल के तौर पर आयात की जाने वाली समस्त कपास का तीन-चौथाई भाग ................ से आता था।
✓ उत्तर: अमेरिका
1860 के दशक से पहले ब्रिटेन में कच्चे कपास का तीन-चौथाई भाग अमेरिका से आता था। अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में गुलामों के श्रम से कपास उगाई जाती थी। 1861 में अमेरिकी गृहयुद्ध शुरू हुआ जिससे कपास की आपूर्ति बाधित हो गई। इसके बाद भारत ब्रिटेन के लिए कच्चे कपास का मुख्य स्रोत बन गया।
vi) सहायक संधि ................. द्वारा 1798 में तैयार की गई एक व्यवस्था थी।
✓ उत्तर: लॉर्ड वेलेजली
सहायक संधि लॉर्ड वेलेजली द्वारा 1798 में तैयार की गई। वेलेजली 1798 से 1805 तक भारत का गवर्नर जनरल था। उसने इस संधि के माध्यम से भारतीय राज्यों को ब्रिटिश नियंत्रण में लाया। हैदराबाद पहला राज्य था जिसने 1798 में यह संधि स्वीकार की।
vii) 13 दिसंबर 1946 को .............. ने संविधान सभा के सामने "उद्देश्य प्रस्ताव" पेश किया।
✓ उत्तर: जवाहरलाल नेहरू
13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के सामने उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया। इस प्रस्ताव में स्वतंत्र भारत के मूल लक्ष्यों और आदर्शों को रेखांकित किया गया था। इसमें भारत को एक स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य बनाने, सभी नागरिकों को न्याय, समानता और स्वतंत्रता प्रदान करने का संकल्प लिया गया। यह प्रस्ताव 22 जनवरी 1947 को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया और यह भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आधार बना।
प्रश्न 3: अति लघुत्तरात्मक प्रश्न
i) आप कैसे कह सकते हैं कि सिंधुवासियों का सुदूर क्षेत्रों से भी संपर्क था?
✓ उत्तर: सिंधु सभ्यता के स्थलों से मेसोपोटामिया की मुहरें और मनके मिले हैं तथा सिंधु की मुहरें मेसोपोटामिया में मिली हैं, जो सुदूर व्यापारिक संपर्क को प्रमाणित करती हैं। अफगानिस्तान से लाजवर्द मणि, ईरान से चांदी और दक्षिण भारत से सोना आयात किया जाता था।
ii) पाटलिपुत्र को वर्तमान में क्या कहा जाता है?
✓ उत्तर: पटना (बिहार राज्य की राजधानी)
iii) मातृवंशिकता का अर्थ क्या है?
✓ उत्तर: मातृवंशिकता वह सामाजिक व्यवस्था है जिसमें वंश का निर्धारण मां के आधार पर होता है और संपत्ति मातृ पक्ष से प्राप्त होती है। दक्षिण भारत में केरल के नायर समुदाय में यह परंपरा प्रचलित थी।
iv) इब्न बतूता के अनुसार "दावा" डाक व्यवस्था क्या थी?
✓ उत्तर: दावा डाक व्यवस्था सल्तनत काल की एक तीव्र संचार प्रणाली थी जिसमें घुड़सवार डाकिए निश्चित दूरी पर बनी चौकियों में घोड़े बदलकर संदेश तेजी से पहुंचाते थे। यह व्यवस्था इतनी तीव्र थी कि दिल्ली से देवगिरि तक का समाचार दस दिन में पहुंच जाता था।
v) शेख निजामुद्दीन औलिया की दरगाह किस शहर में है?
✓ उत्तर: दिल्ली (हजरत निजामुद्दीन क्षेत्र में)
vi) गोपुरम किसे कहते हैं?
✓ उत्तर: गोपुरम दक्षिण भारतीय मंदिरों के प्रवेश द्वार पर बनी ऊंची पिरामिडनुमा संरचना को कहते हैं जिस पर देवी-देवताओं की जटिल नक्काशी होती है।
vii) मुकद्दम या मंडल शब्द किस के लिए प्रयोग में लिया जाता था?
✓ उत्तर: मुगलकाल में गांव के मुखिया या प्रधान के लिए। यह व्यक्ति प्रशासन और गांववासियों के बीच कड़ी का काम करता था और राजस्व संग्रह में सहायता करता था।
viii) 1929 का कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन किस दृष्टि से महत्वपूर्ण था?
✓ उत्तर: इस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज की मांग की गई और 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाने का निर्णय लिया गया। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए इस अधिवेशन ने भारत के लक्ष्य को डोमिनियन स्टेटस से बदलकर पूर्ण स्वतंत्रता कर दिया।
ix) गरीबों के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करने के लिए गांधीजी ने क्या किया?
✓ उत्तर: गांधीजी ने साधारण धोती पहनना, सादा भोजन करना, चरखा चलाना और ग्रामीण भारत में रहकर किसानों के साथ जीवन व्यतीत करना शुरू किया। उन्होंने अपनी जीवनशैली को पूरी तरह से बदल दिया और सामान्य भारतीयों की तरह रहने लगे।
x) राष्ट्रीय ध्वज के प्रस्ताव को संविधान सभा में किसने पेश किया था?
✓ उत्तर: जवाहरलाल नेहरू ने 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज का प्रस्ताव पेश किया। तिरंगे झंडे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया जिसमें केसरिया, सफेद और हरे रंग की तीन समान पट्टियां और बीच में अशोक चक्र था।
खंड - ब (Section - B)
लघुत्तरात्मक प्रश्न (उत्तर शब्द सीमा लगभग 50 शब्द)
प्रश्न 4: आपके विचार से सिंधु घाटी सभ्यता का अंत किस प्रकार हुआ? समझाइए।
✓ उत्तर:
सिंधु घाटी सभ्यता के अंत के बारे में कई सिद्धांत हैं:
1. जलवायु परिवर्तन: नदियों के मार्ग में परिवर्तन और वर्षा की कमी ने कृषि को प्रभावित किया। सरस्वती नदी का सूखना एक महत्वपूर्ण कारक था।
2. बाढ़: बार-बार आने वाली बाढ़ों ने नगरों को नष्ट किया और लोग पलायन करने को मजबूर हुए।
3. पारिस्थितिकीय असंतुलन: वनों की कटाई और भूमि के अत्यधिक उपयोग ने पर्यावरणीय संकट उत्पन्न किया।
4. आर्य आक्रमण सिद्धांत: कुछ विद्वान आर्यों के आक्रमण को कारण मानते हैं लेकिन इसके पर्याप्त साक्ष्य नहीं मिले हैं।
संभवतः इन सभी कारणों ने मिलकर इस महान सभ्यता के पतन में योगदान दिया। सभ्यता का अंत एकाएक नहीं बल्कि धीरे-धीरे हुआ।
प्रश्न 5: सिक्कों से क्या ऐतिहासिक जानकारियां प्राप्त होती हैं?
✓ उत्तर:
सिक्कों से विभिन्न प्रकार की ऐतिहासिक जानकारियां मिलती हैं:
- शासकों की पहचान: सिक्कों पर अंकित नाम और उपाधियों से राजवंशों की पहचान होती है।
- कालक्रम निर्धारण: सिक्कों पर लिखी तिथियों से समय का निर्धारण होता है।
- धार्मिक जानकारी: धार्मिक प्रतीकों से तत्कालीन धर्म और विश्वासों की जानकारी मिलती है।
- आर्थिक स्थिति: सिक्कों की धातु और वजन से अर्थव्यवस्था का अनुमान लगता है।
- साम्राज्य की सीमाएं: सिक्कों के प्रसार क्षेत्र से राज्य की भौगोलिक सीमाओं का पता चलता है।
- व्यापारिक संबंध: विदेशी सिक्कों की प्राप्ति अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रमाणित करती है।
- कला और संस्कृति: सिक्कों पर अंकित चित्र और भाषा से कलात्मक विकास की जानकारी मिलती है।
प्रश्न 6: स्त्रीधन किसे कहते हैं?
✓ उत्तर:
स्त्रीधन का अर्थ है वह संपत्ति जो विवाह के समय या विवाह के बाद स्त्री को उपहार में मिलती है। प्राचीन भारतीय कानून में इसे स्त्री की निजी संपत्ति माना जाता था। इसमें आभूषण, कपड़े, धन और अन्य मूल्यवान वस्तुएं शामिल थीं।
मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति में स्त्रीधन के बारे में विस्तृत नियम दिए गए हैं। स्त्रीधन पर स्त्री का पूर्ण अधिकार होता था और पति भी इसे नहीं ले सकता था। स्त्री की मृत्यु के बाद यह संपत्ति उसकी पुत्रियों को मिलती थी। स्त्रीधन की अवधारणा स्त्री को आर्थिक सुरक्षा और स्वतंत्रता प्रदान करती थी।
प्रश्न 7: किन्हीं दो स्तूपों के नाम लिखिए।
✓ उत्तर:
1. सांची का महास्तूप: मध्य प्रदेश में स्थित यह सबसे प्रसिद्ध स्तूप है। सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसका निर्माण करवाया था। यह यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल है। इसके चारों ओर सुंदर तोरण द्वार हैं जिन पर बुद्ध के जीवन की घटनाएं उकेरी गई हैं।
2. अमरावती का स्तूप: आंध्र प्रदेश में स्थित यह सातवाहन काल का महत्वपूर्ण स्तूप है जो अपनी सुंदर नक्काशी और मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध है। यह कृष्णा नदी के किनारे स्थित था और इसकी कलाकृतियां दुनिया भर के संग्रहालयों में संरक्षित हैं।
प्रश्न 8: इब्न बतूता ने वानस्पतिक उपज "पान" का चित्रण किस प्रकार किया?
✓ उत्तर:
इब्न बतूता ने पान का विस्तृत और रोचक वर्णन किया है। उसने लिखा कि पान का पत्ता हरा होता है और इसे चूने के साथ चबाया जाता है। इसमें सुपारी और कत्था भी मिलाया जाता है। पान चबाने से मुंह लाल हो जाता है और यह पाचन में सहायक होता है।
इब्न बतूता ने पान को भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बताया। उसने लिखा कि भारतीय लोग अतिथि सत्कार में पान अवश्य प्रस्तुत करते थे। राजदरबार में भी पान का विशेष महत्व था और सुल्तान मेहमानों को पान देकर सम्मानित करता था। उसने यह भी उल्लेख किया कि पान के बिना कोई सामाजिक समारोह अधूरा माना जाता था।
प्रश्न 9: आपके विचार से चिश्ती सिलसिला की किन विशेषताओं ने उसे लोकप्रिय बनाया?
✓ उत्तर:
चिश्ती सिलसिला की निम्नलिखित विशेषताओं ने इसे अत्यंत लोकप्रिय बनाया:
1. उदार दृष्टिकोण: चिश्ती संतों ने सभी धर्मों के लोगों के प्रति उदार रवैया अपनाया। वे जाति और धर्म के भेदभाव से ऊपर थे।
2. राजनीति से दूरी: उन्होंने सांसारिक विषयों और राजनीति से दूर रहकर आध्यात्मिकता पर ध्यान केंद्रित किया।
3. समा (सूफी संगीत): उन्होंने समा को प्रोत्साहन दिया जो लोगों को आकर्षित करता था और भक्ति भावना जगाता था।
4. स्थानीय भाषा: चिश्ती संतों ने स्थानीय भाषाओं में उपदेश दिया जिससे आम लोग उन्हें समझ सकते थे।
5. लंगर परंपरा: उन्होंने लंगर की प्रथा स्थापित की जहां सभी धर्मों और जातियों के लोगों को मुफ्त भोजन मिलता था।
प्रश्न 10: विजयनगर साम्राज्य के किन्हीं दो राजकीय केंद्रों के नाम लिखिए।
✓ उत्तर:
1. हम्पी: यह विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी जो तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित थी। यह साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक केंद्र था। यहां भव्य मंदिर, राजमहल और बाजार थे। 1565 में तालीकोटा युद्ध के बाद यह नगर नष्ट हो गया।
2. पेनुकोंडा: यह विजयनगर साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण राजकीय केंद्र था। हम्पी के पतन के बाद पेनुकोंडा अस्थायी राजधानी बना। यह एक सुरक्षित पहाड़ी किला था जो रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। अरावीडु वंश के शासकों ने यहां से शासन किया।
प्रश्न 11: पोलज और परौती जमीन में अंतर स्पष्ट कीजिए।
✓ उत्तर:
पोलज और परौती मुगलकालीन भूमि वर्गीकरण की दो महत्वपूर्ण श्रेणियां थीं:
पोलज भूमि: यह वह भूमि थी जो हर साल खेती के लिए उपयोग में लाई जाती थी। यह सबसे उपजाऊ और उत्पादक भूमि थी। इस भूमि में नियमित रूप से फसलें उगाई जाती थीं और इसकी उर्वरा शक्ति बनी रहती थी। इस पर सबसे अधिक लगान या राजस्व लिया जाता था क्योंकि यह सबसे अधिक उत्पादन देती थी।
परौती भूमि: यह वह भूमि थी जो एक या दो साल के लिए खाली छोड़ दी जाती थी ताकि उसकी उर्वरा शक्ति वापस आ सके। इसे परती भूमि भी कहा जाता था। इस भूमि पर पोलज की तुलना में कम लगान लगता था क्योंकि यह अस्थायी रूप से उत्पादन नहीं दे रही होती थी। यह प्राकृतिक रूप से भूमि की उर्वरता बहाल करने की पद्धति थी।
प्रश्न 12: दक्कन दंगा आयोग की रिपोर्ट, इतिहासकारों को किस प्रकार की सामग्री उपलब्ध कराती है?
✓ उत्तर:
दक्कन दंगा आयोग की रिपोर्ट 1875 के दक्कन दंगों की जांच के लिए तैयार की गई थी। यह रिपोर्ट इतिहासकारों को औपनिवेशिक काल के ग्रामीण समाज के बारे में अमूल्य जानकारी प्रदान करती है:
- किसान-साहूकार संबंध: रिपोर्ट में किसानों और साहूकारों के बीच संबंधों का विस्तृत विवरण है।
- आर्थिक दुर्दशा: किसानों की ऋणग्रस्तता, शोषण और आर्थिक संकट की जानकारी मिलती है।
- ग्रामीण संरचना: इसमें ग्रामीण समाज की संरचना, भूमि व्यवस्था और सामाजिक संबंधों का वर्णन है।
- राजस्व नीतियां: ब्रिटिश राजस्व नीतियों के प्रभाव और किसानों पर पड़ने वाले दबाव की जानकारी मिलती है।
- प्राथमिक स्रोत: रिपोर्ट में किसानों के साक्षात्कार और स्थानीय अधिकारियों के बयान शामिल हैं जो उस समय की वास्तविक स्थिति को प्रामाणिक रूप से दर्शाते हैं।
प्रश्न 13: "उपनिवेशवाद और देहात" नामक अध्याय में कुदाल और हल से क्या आशय है?
✓ उत्तर:
कुदाल: इससे तात्पर्य उन गरीब और छोटे किसानों से है जिनके पास बहुत कम भूमि थी और वे हाथ के औजारों से खेती करते थे। ये किसान अपने परिवार के श्रम पर निर्भर थे और उनके पास बैल या अन्य पशु नहीं थे। ये सबसे गरीब किसान थे जो मुश्किल से अपना गुजारा कर पाते थे।
हल: इससे आशय उन किसानों से है जिनके पास अपेक्षाकृत अधिक भूमि थी और वे पशुओं की सहायता से खेती करते थे। ये किसान अपेक्षाकृत संपन्न थे और बेहतर उत्पादन कर सकते थे। उनके पास बैल, हल और अन्य कृषि उपकरण होते थे।
यह विभाजन ग्रामीण समाज में आर्थिक असमानता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है और औपनिवेशिक नीतियों के विभेदकारी प्रभाव को उजागर करता है।
प्रश्न 14: सहायक संधि की कोई दो शर्तें लिखिए।
✓ उत्तर:
1. सैन्य टुकड़ी और खर्च: भारतीय राज्य को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना की एक टुकड़ी रखनी होगी और इसका पूरा खर्च वहन करना होगा। यदि राज्य नकद भुगतान नहीं कर सकता था तो उसे अपने कुछ क्षेत्र अंग्रेजों को देने होते थे। यह व्यवस्था राज्यों पर बहुत बड़ा वित्तीय बोझ डालती थी।
2. विदेश नीति पर नियंत्रण: राज्य अपनी विदेश नीति का संचालन स्वतंत्र रूप से नहीं कर सकता था। किसी भी विदेशी शक्ति से संधि करने या युद्ध करने के लिए अंग्रेजों की पूर्व अनुमति आवश्यक थी। राज्य में एक ब्रिटिश रेजिडेंट रहता था जो वास्तविक सत्ता का प्रयोग करता था। इस प्रकार सहायक संधि द्वारा भारतीय राज्यों को वास्तव में अंग्रेजों के अधीन कर दिया गया।
प्रश्न 15: संविधान सभा ने अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु क्या सुझाव दिए? कोई दो सुझाव लिखिए।
✓ उत्तर:
1. अनुच्छेद 17 - अस्पृश्यता का उन्मूलन: संविधान के अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता को पूर्णतः समाप्त कर दिया गया और इसके किसी भी रूप को दंडनीय अपराध घोषित किया गया। किसी भी व्यक्ति के साथ उसकी जाति के आधार पर भेदभाव करना या अस्पृश्यता का व्यवहार करना गैरकानूनी घोषित किया गया। इसका उल्लंघन करने पर कानूनी कार्रवाई का प्रावधान किया गया।
2. अनुच्छेद 15 - भेदभाव का निषेध: अनुच्छेद 15 में राज्य को धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी नागरिक के विरुद्ध भेदभाव करने से रोका गया। सार्वजनिक स्थानों, दुकानों, रेस्तरां, कुओं, तालाबों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों तक सभी की समान पहुंच सुनिश्चित की गई। इन प्रावधानों ने भारतीय समाज में समानता स्थापित करने का संवैधानिक आधार प्रदान किया।
खंड - स (Section - C)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (उत्तर शब्द सीमा लगभग 100 शब्द)
प्रश्न 16: मौर्य वंश की जानकारी किन स्रोतों से प्राप्त होती है? लिखिए।
✓ उत्तर:
मौर्य वंश की जानकारी विभिन्न साहित्यिक और पुरातात्विक स्रोतों से प्राप्त होती है:
साहित्यिक स्रोत:
- अर्थशास्त्र: कौटिल्य (चाणक्य) का अर्थशास्त्र सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें मौर्यकालीन प्रशासन, अर्थव्यवस्था, राजनीति और सामाजिक जीवन का विस्तृत विवरण मिलता है। यह राज्य संचालन की व्यावहारिक जानकारी देता है।
- इंडिका: मेगस्थनीज की पुस्तक इंडिका (मूल रूप में उपलब्ध नहीं, लेकिन अन्य लेखकों के उद्धरणों में मिलती है) में चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार और पाटलिपुत्र नगर का वर्णन है।
- पुराण: विभिन्न पुराणों में मौर्य राजाओं की वंशावली और शासन अवधि की जानकारी है।
- बौद्ध ग्रंथ: दीपवंश और महावंश में अशोक के धर्म प्रचार और श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रसार की जानकारी है।
- जैन ग्रंथ: जैन परंपराओं में चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन और जैन धर्म अपनाने का उल्लेख मिलता है।
पुरातात्विक स्रोत:
- अशोक के शिलालेख: ये सबसे महत्वपूर्ण हैं। देश के विभिन्न भागों में पाए गए ये शिलालेख अशोक की धम्म नीति, प्रशासन और साम्राज्य की सीमाओं की जानकारी देते हैं।
- सिक्के: मौर्यकालीन सिक्कों से आर्थिक स्थिति का पता चलता है।
- पुरातात्विक अवशेष: पाटलिपुत्र और अन्य स्थलों की खुदाई से नगर योजना और स्थापत्य कला की जानकारी मिलती है।
अथवा
मौर्य साम्राज्य के प्रमुख राजनीतिक केंद्रों के बारे में लिखिए।
✓ उत्तर:
मौर्य साम्राज्य में कई महत्वपूर्ण राजनीतिक और प्रशासनिक केंद्र थे:
- पाटलिपुत्र: यह साम्राज्य की राजधानी और सबसे महत्वपूर्ण केंद्र था। गंगा और सोन नदी के संगम पर स्थित इस नगर से पूरे साम्राज्य का प्रशासन संचालित होता था। यहां राजा का भव्य महल, प्रशासनिक कार्यालय और सेना का मुख्यालय था। मेगस्थनीज ने इसे विश्व के सबसे भव्य नगरों में से एक बताया।
- तक्षशिला: उत्तर-पश्चिम भारत में स्थित यह महत्वपूर्ण राजनीतिक, व्यापारिक और शैक्षिक केंद्र था। यह व्यापारिक मार्गों के चौराहे पर स्थित था। यहां प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था। अशोक को युवराज के रूप में यहां भेजा गया था।
- उज्जयिनी: पश्चिमी भारत का प्रमुख राजनीतिक केंद्र था। अवंती प्रांत की राजधानी के रूप में इसका बहुत महत्व था। अशोक ने युवराज के रूप में यहां शासन किया था।
- तोसली: पूर्वी भारत में कलिंग क्षेत्र का महत्वपूर्ण केंद्र था। कलिंग विजय के बाद यह मौर्य प्रशासन का हिस्सा बना।
- सुवर्णगिरि: दक्षिण भारत का महत्वपूर्ण प्रशासनिक केंद्र था। यहां से दक्षिणी प्रांतों का प्रशासन चलाया जाता था।
ये सभी केंद्र प्रांतीय राजधानियां थीं जहां राजकुमार या उच्च अधिकारी प्रशासन चलाते थे। इन केंद्रों को राजधानी से अच्छी सड़कों द्वारा जोड़ा गया था जिससे संचार और व्यापार सुगम था।
प्रश्न 17: बौद्ध दर्शन की प्रमुख शिक्षाओं को स्पष्ट कीजिए।
✓ उत्तर:
बौद्ध दर्शन की मुख्य शिक्षाएं बुद्ध के चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग पर आधारित हैं:
चार आर्य सत्य:
- दुख: जीवन दुखमय है। जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु सभी दुख हैं। प्रिय वस्तुओं से अलग होना और अप्रिय वस्तुओं का सामना करना भी दुख है।
- दुख का कारण: तृष्णा या इच्छा दुख का मूल कारण है। मनुष्य की अतृप्त इच्छाएं और लालसा उसे दुख देती हैं।
- दुख का निवारण: तृष्णा को समाप्त करके दुख से मुक्ति पाई जा सकती है। निर्वाण प्राप्ति ही अंतिम लक्ष्य है।
- दुख निवारण का मार्ग: अष्टांगिक मार्ग दुख निवारण का साधन है।
अष्टांगिक मार्ग:
- सम्यक दृष्टि: चार आर्य सत्यों को समझना
- सम्यक संकल्प: सही विचार और मनोभाव
- सम्यक वाणी: सत्य और मधुर बोलना
- सम्यक कर्मांत: सही आचरण
- सम्यक आजीव: ईमानदारी से जीविका कमाना
- सम्यक व्यायाम: निरंतर प्रयास
- सम्यक स्मृति: सजगता और जागरूकता
- सम्यक समाधि: ध्यान और एकाग्रता
अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत:
- अनित्यता: संसार में सब कुछ परिवर्तनशील है, कुछ भी स्थायी नहीं है।
- अनात्मा: आत्मा का कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है।
- मध्यम मार्ग: बुद्ध ने अति संयम और अति भोग दोनों को अस्वीकार किया।
- अहिंसा, करुणा और मैत्री: सभी प्राणियों के प्रति दया और प्रेम।
अथवा
वैष्णववाद का विकास किस प्रकार हुआ? समझाइए।
✓ उत्तर:
वैष्णववाद का विकास एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम था जो विभिन्न कालों में हुआ:
वैदिक काल: वैदिक काल में विष्णु एक गौण देवता थे। ऋग्वेद में उनका उल्लेख मिलता है लेकिन उन्हें प्रमुख स्थान प्राप्त नहीं था। वे मुख्यतः सूर्य से जुड़े देवता माने जाते थे।
उपनिषद काल: उपनिषदों में विष्णु को ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत किया गया। उन्हें सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान माना जाने लगा।
महाकाव्य काल: महाभारत और रामायण में विष्णु की महत्ता बहुत बढ़ गई। उन्हें सर्वोच्च देवता के रूप में स्वीकार किया गया। भगवद्गीता में कृष्ण को विष्णु का अवतार बताया गया और उन्हें परम ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत किया गया।
गुप्तकाल: गुप्तकाल में वैष्णववाद का सबसे अधिक विकास हुआ। इस काल में अवतारवाद की अवधारणा विकसित हुई। माना गया कि विष्णु युग-युग में धर्म की रक्षा के लिए विभिन्न रूपों में अवतार लेते हैं। दस अवतारों की परंपरा स्थापित हुई - मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि।
पुराण काल: विभिन्न पुराणों, विशेषकर भागवत पुराण में वैष्णव भक्ति का विस्तृत वर्णन मिलता है। इन ग्रंथों में विष्णु की लीलाओं और भक्ति का महत्व बताया गया।
भक्ति आंदोलन: दक्षिण भारत में अलवार संतों ने 6वीं से 9वीं शताब्दी में वैष्णव भक्ति आंदोलन को लोकप्रिय बनाया। उन्होंने तमिल भाषा में भक्ति गीत रचे। मध्यकाल में रामानुज, मध्व, निम्बार्क, वल्लभाचार्य और चैतन्य महाप्रभु जैसे आचार्यों ने वैष्णववाद के विभिन्न संप्रदायों की स्थापना की।
इस प्रकार वैष्णववाद धीरे-धीरे भारत का सबसे व्यापक और लोकप्रिय धार्मिक आंदोलन बन गया।
प्रश्न 18: मुगलकालीन भारत में कभी कभी किसानों और दस्तकारों के बीच फर्क करना मुश्किल होता था। कथन की विवेचना कीजिए।
✓ उत्तर:
मुगलकालीन भारत में किसानों और दस्तकारों के बीच स्पष्ट विभाजन करना कठिन था क्योंकि दोनों वर्ग आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े थे:
दोहरी व्यवसाय प्रणाली: कई किसान कृषि कार्य के साथ-साथ अन्य व्यवसायों में भी लगे रहते थे। फसल कटाई के बाद के समय में, जब खेती का काम कम होता था, वे दस्तकारी का काम करते थे। उदाहरण के लिए, कई किसान बुनाई, लोहारी, बढ़ईगीरी, मिट्टी के बर्तन बनाना या चमड़े का काम करते थे।
दस्तकारों की कृषि गतिविधियां: इसी प्रकार, कई दस्तकार अपनी छोटी जोत पर खेती भी करते थे। वे अपने मुख्य व्यवसाय के साथ-साथ कृषि कार्य में भी संलग्न रहते थे। यह उनकी आय का एक अतिरिक्त स्रोत था।
आर्थिक आवश्यकता: ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ये दोनों गतिविधियां परस्पर पूरक थीं। आय के स्रोतों में विविधता ग्रामीण परिवारों के लिए आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती थी। एक ही व्यवसाय पर निर्भरता जोखिमपूर्ण थी।
जाति व्यवस्था: भारतीय जाति व्यवस्था भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार थी। कुछ जातियां परंपरागत रूप से कृषि और दस्तकारी दोनों से जुड़ी थीं। उदाहरण के लिए, कुछ बुनकर समुदाय खेती भी करते थे।
अभिलेखों में अस्पष्टता: राजस्व अभिलेखों में भी यह स्पष्ट विभाजन नहीं दिखता। कई बार किसानों को उनके दस्तकारी कौशल के आधार पर और दस्तकारों को उनकी भूमि के आधार पर वर्गीकृत किया जाता था। यह अभिलेखों को समझने में कठिनाई उत्पन्न करता है।
इस प्रकार मुगलकालीन ग्रामीण अर्थव्यवस्था में किसान और दस्तकार परस्पर जुड़े हुए थे और इनमें स्पष्ट विभाजन करना कठिन था।
अथवा
मुगलकालीन भारत में पंचायतों के कार्यों की विवेचना कीजिए।
✓ उत्तर:
मुगलकालीन भारत में पंचायतें ग्रामीण प्रशासन और सामाजिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग थीं। उनके प्रमुख कार्य निम्नलिखित थे:
1. न्याय प्रशासन: पंचायतों का सबसे प्रमुख कार्य स्थानीय विवादों का निपटारा करना था। संपत्ति के झगड़े, पारिवारिक मामले, सिंचाई के पानी का बंटवारा, सीमा विवाद और सामाजिक विवादों को पंचायत सुलझाती थी। पंचायत का निर्णय समुदाय द्वारा मान्य होता था और लोग इसे स्वेच्छा से स्वीकार करते थे।
2. राजस्व संग्रह: पंचायतें राजस्व संग्रह में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। वे गांव की कुल उपज का आकलन करतीं और किसानों के बीच कर का विभाजन करतीं। वे राजस्व अधिकारियों और किसानों के बीच मध्यस्थ का काम करती थीं।
3. सामुदायिक संपत्ति का प्रबंधन: पंचायतें गांव की सामुदायिक संपत्ति जैसे चारागाह, तालाब, कुएं, मंदिर और सार्वजनिक भूमि का प्रबंधन करती थीं। वे इन संसाधनों के उचित उपयोग और रखरखाव को सुनिश्चित करती थीं।
4. कानून व्यवस्था: पंचायतें गांव में शांति और व्यवस्था बनाए रखती थीं। वे छोटे-मोटे अपराधों की जांच करती थीं और अपराधियों को दंड देती थीं। गंभीर मामलों में वे राज्य अधिकारियों को सूचित करती थीं।
5. सामाजिक नियंत्रण: पंचायतें सामाजिक नियमों और परंपराओं को लागू करती थीं। वे जाति नियमों का पालन सुनिश्चित करती थीं और सामाजिक बहिष्कार जैसे दंड दे सकती थीं।
6. सार्वजनिक कार्य: पंचायतें सार्वजनिक कार्यों जैसे कुओं की खुदाई, सड़कों की मरम्मत, पुलों का निर्माण और धार्मिक त्योहारों के आयोजन की देखरेख करती थीं।
इस प्रकार पंचायतें मुगलकालीन ग्रामीण समाज के सफल संचालन में केंद्रीय भूमिका निभाती थीं और स्थानीय स्वशासन का महत्वपूर्ण माध्यम थीं।
प्रश्न 19: 1857 का आंदोलन किस प्रकार शुरू हुआ? वर्णन कीजिए।
✓ उत्तर:
1857 का आंदोलन एक सैन्य विद्रोह के रूप में शुरू हुआ जो बाद में एक व्यापक राष्ट्रीय विद्रोह में बदल गया:
तात्कालिक कारण - चर्बी लगे कारतूस: विद्रोह का तात्कालिक कारण नई एनफील्ड राइफल में चर्बी लगे कारतूसों का प्रयोग था। इन कारतूसों को दांतों से काटना पड़ता था। भारतीय सैनिकों को विश्वास था कि कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी लगी है जो हिंदू और मुसलमान दोनों की धार्मिक भावनाओं को आहत करती थी।
मेरठ में विद्रोह (10 मई 1857): 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने अपने उन साथियों को मुक्त कराया जिन्हें कारतूस प्रयोग करने से इनकार करने के कारण कैद किया गया था। विद्रोही सैनिकों ने अंग्रेज अधिकारियों और उनके परिवारों पर हमला किया। मेरठ की जेल तोड़ी गई और बंदियों को मुक्त कराया गया।
दिल्ली की ओर कूच (11 मई 1857): मेरठ से विद्रोही सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े। 11 मई को वे दिल्ली पहुंचे और शहर पर कब्जा कर लिया। उन्होंने लाल किले में प्रवेश किया और अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को भारत का सम्राट घोषित किया। इससे विद्रोह को वैधता और नेतृत्व मिला।
विद्रोह का प्रसार: दिल्ली की घटना के बाद विद्रोह तेजी से उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों में फैल गया:
- कानपुर: नाना साहब ने विद्रोह का नेतृत्व किया और अंग्रेजों को परास्त किया।
- लखनऊ: बेगम हजरत महल ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया और अंग्रेज रेजिडेंसी को घेर लिया।
- झांसी: रानी लक्ष्मीबाई ने वीरता से विद्रोह का नेतृत्व किया।
- बिहार: कुंवर सिंह ने 80 वर्ष की आयु में विद्रोह का नेतृत्व किया।
जनभागीदारी: धीरे-धीरे किसान, जमींदार, शिल्पकार और आम जनता भी विद्रोह में शामिल हो गई। इस प्रकार यह एक सैन्य विद्रोह से एक व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन में परिवर्तित हो गया।
अथवा
1857 की अफवाहों पर लोग विश्वास क्यों कर रहे थे? स्पष्ट कीजिए।
✓ उत्तर:
1857 में लोग विभिन्न अफवाहों पर विश्वास कर रहे थे क्योंकि उस समय की सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी थीं:
1. धार्मिक असुरक्षा: अंग्रेजों की कुछ नीतियों से लोगों को लगता था कि उनका धर्म खतरे में है। ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां बढ़ रही थीं और धर्मांतरण के प्रयास हो रहे थे। सती प्रथा का निषेध, विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहन और पश्चिमी शिक्षा का प्रसार धार्मिक हस्तक्षेप माना जा रहा था।
2. संचार साधनों की कमी: उस समय संचार के आधुनिक साधन नहीं थे। अफवाहें मौखिक रूप से तेजी से फैलती थीं और लोगों के पास सत्य जानने का कोई विश्वसनीय माध्यम नहीं था। एक बार फैलने के बाद अफवाह को रोकना असंभव हो जाता था।
3. अंग्रेजों के प्रति अविश्वास: अंग्रेजों के प्रति सामान्य अविश्वास और शत्रुता का वातावरण था। लोग अंग्रेजों की हर नीति को संदेह की दृष्टि से देखते थे। पिछले अनुभवों ने उन्हें सिखाया था कि अंग्रेज विश्वसनीय नहीं हैं।
4. सामाजिक परिवर्तन: पारंपरिक सत्ता संरचनाओं और सामाजिक व्यवस्था का तेजी से विघटन हो रहा था। राजाओं और जमींदारों की शक्ति कम हो रही थी। लोग असुरक्षित और भयभीत महसूस कर रहे थे।
5. विशिष्ट अफवाहें:
- चर्बी लगे कारतूस: यह अफवाह धार्मिक भावनाओं को सीधे प्रभावित करती थी और इसे आसानी से विश्वास कर लिया गया।
- हड्डी के चूर्ण वाला आटा: यह अफवाह थी कि अंग्रेज आटे में गाय और सूअर की हड्डियों का चूर्ण मिला रहे हैं।
- प्रतीकात्मक संदेश: कमल के फूल और रोटी जैसे प्रतीकों का उपयोग विद्रोह का संदेश फैलाने के लिए किया जा रहा था।
6. सामूहिक मनोविज्ञान: भय और अनिश्चितता के वातावरण में लोग आसानी से अफवाहों पर विश्वास कर लेते हैं। जब बहुत से लोग एक बात पर विश्वास करते हैं तो अन्य भी उस पर विश्वास करने लगते हैं।
इन सभी कारणों से 1857 में अफवाहें तेजी से फैलीं और लोगों ने उन पर विश्वास किया जिसने विद्रोह को व्यापक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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खंड द और मानचित्र प्रश्न अगले उत्तर में जारी...
खंड - द (Section - D)
निबंधात्मक प्रश्न (उत्तर शब्द सीमा लगभग 200-250 शब्द)
प्रश्न 20: भारत छोड़ो आंदोलन पर एक निबंध लिखिए।
✓ उत्तर:
भूमिका
भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अंतिम और सबसे शक्तिशाली जनआंदोलन था। यह द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 8 अगस्त 1942 को शुरू हुआ जब महात्मा गांधी ने मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान (अब अगस्त क्रांति मैदान) में "करो या मरो" का प्रसिद्ध नारा दिया।
आंदोलन की पृष्ठभूमि
1942 में भारत की राजनीतिक स्थिति बहुत संवेदनशील थी। द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों की सहमति के बिना भारत को युद्ध में शामिल कर दिया था। मार्च 1942 में सर स्टैफर्ड क्रिप्स भारत आए और एक प्रस्ताव लेकर आए जिसमें युद्ध के बाद भारत को डोमिनियन स्टेटस देने का वादा था। लेकिन कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया क्योंकि इसमें तत्काल स्वतंत्रता का प्रावधान नहीं था।
आंदोलन का प्रारंभ
8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने मुंबई में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया जिसमें अंग्रेजों से तत्काल भारत छोड़ने की मांग की गई। महात्मा गांधी ने अपने भाषण में कहा "करो या मरो" - या तो हम भारत को आजाद करा लेंगे या इस प्रयास में अपनी जान दे देंगे।
9 अगस्त 1942 की सुबह ही ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के सभी शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। महात्मा गांधी को पुणे के आगा खान पैलेस में, जवाहरलाल नेहरू को अहमदनगर किले में और अन्य नेताओं को विभिन्न जेलों में बंद कर दिया गया।
आंदोलन का विस्तार और स्वरूप
नेताओं की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन स्वतःस्फूर्त और हिंसक हो गया। देश भर में प्रदर्शन, हड़तालें और सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गए। लोगों ने सरकारी संपत्तियों पर हमले किए, रेलवे लाइनें उखाड़ दीं, डाकघरों और पुलिस थानों पर हमले किए। आंदोलन में विभिन्न वर्गों ने भाग लिया:
- छात्रों की भागीदारी: छात्रों ने बड़े पैमाने पर स्कूल-कॉलेज छोड़े और आंदोलन में शामिल हुए। वे प्रदर्शनों का नेतृत्व करते थे और भूमिगत गतिविधियों में सक्रिय थे।
- किसानों का योगदान: ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों ने सक्रिय भाग लिया। उन्होंने सरकारी भवनों पर हमले किए और कर देने से इनकार कर दिया।
- मजदूरों की हड़तालें: औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों ने हड़तालें कीं जिससे उत्पादन ठप हो गया।
- महिलाओं की सक्रियता: उषा मेहता ने गुप्त रेडियो स्टेशन चलाया, अरुणा आसफ अली ने मुंबई में तिरंगा फहराया और सुचेता कृपलानी, रामा देवी जैसी अनेक महिलाओं ने नेतृत्व प्रदान किया।
समानांतर सरकारों की स्थापना
कई स्थानों पर समानांतर सरकारें स्थापित की गईं:
- बलिया (उत्तर प्रदेश): चित्तू पांडे ने "स्वतंत्र बलिया" की घोषणा की और समानांतर सरकार चलाई।
- सतारा (महाराष्ट्र): प्रति सरकार की स्थापना हुई जो 1943 से 1945 तक चली।
- मेदिनीपुर (बंगाल): ताम्रलिप्त जातीय सरकार बनाई गई।
प्रमुख नेता और उनकी भूमिकाएं
- जय प्रकाश नारायण: जेल से भागने के बाद भूमिगत गतिविधियों का नेतृत्व किया।
- राम मनोहर लोहिया: भूमिगत रहकर आंदोलन को दिशा दी।
- अरुणा आसफ अली: मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहराया और आंदोलन की प्रतीक बनीं।
- उषा मेहता: गुप्त रेडियो स्टेशन से प्रसारण किया और लोगों को आंदोलन की जानकारी दी।
ब्रिटिश दमन
ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को बेरहमी से कुचलने का प्रयास किया:
- लगभग 1 लाख लोगों को गिरफ्तार किया गया
- प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई गईं जिसमें हजारों लोग मारे गए
- गांवों पर सामूहिक जुर्माना लगाया गया
- अनेक स्थानों पर कर्फ्यू लगा दिया गया
- मीडिया पर सख्त सेंसरशिप लागू की गई
आंदोलन का महत्व और परिणाम
भारत छोड़ो आंदोलन ने कई महत्वपूर्ण परिणाम दिए:
1. राष्ट्रव्यापी जनभागीदारी: यह आंदोलन सभी वर्गों, क्षेत्रों और समुदायों को एक साथ लाया। इसने साबित कर दिया कि भारतीय जनता स्वतंत्रता के लिए किसी भी त्याग को तैयार है।
2. ब्रिटिश नीति में परिवर्तन: आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार को यह समझा दिया कि अब भारत पर शासन करना असंभव है। युद्ध के बाद उन्होंने स्वतंत्रता देने की प्रक्रिया शुरू की।
3. नेतृत्व का विकास: पुराने नेताओं के जेल में होने के कारण नए नेताओं का उदय हुआ। युवाओं ने नेतृत्व संभाला जो भविष्य के लिए महत्वपूर्ण था।
4. जनसंचार की शक्ति: उषा मेहता के गुप्त रेडियो स्टेशन ने संचार माध्यमों की शक्ति को दिखाया।
5. अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव: आंदोलन ने विश्व का ध्यान भारत की स्वतंत्रता की मांग की ओर आकर्षित किया।
निष्कर्ष
भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक मोड़ था। यह पहला ऐसा आंदोलन था जिसमें पूर्ण स्वतंत्रता की स्पष्ट मांग की गई और जिसमें सभी वर्गों ने बड़े पैमाने पर भाग लिया। यद्यपि आंदोलन को दबा दिया गया, लेकिन इसने यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटिश राज अब भारत में नहीं चल सकता। यह आंदोलन 1947 में मिली स्वतंत्रता की नींव था। "करो या मरो" का नारा भारतीयों की दृढ़ संकल्प शक्ति का प्रतीक बन गया और यह आज भी प्रेरणा का स्रोत है।
अथवा
नमक कानून तोड़ने के लिए गांधीजी ने दांडी की ओर कूच करने का निर्णय क्यों लिया? समझाइए।
✓ उत्तर:
भूमिका
दांडी यात्रा या नमक सत्याग्रह 1930 में महात्मा गांधी द्वारा ब्रिटिश सरकार के नमक कानून के विरुद्ध शुरू किया गया एक ऐतिहासिक सविनय अवज्ञा आंदोलन था। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक निर्णायक मोड़ था जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्वतंत्रता की मांग को मजबूती दी।
नमक कानून और उसकी अन्यायपूर्णता
ब्रिटिश सरकार ने भारत में नमक के उत्पादन, वितरण और बिक्री पर एकाधिकार स्थापित कर रखा था। 1882 के नमक अधिनियम के तहत भारतीयों को नमक बनाना या बेचना गैरकानूनी था। सरकार ने नमक पर भारी कर लगा रखा था जिससे गरीबों को भी महंगा नमक खरीदना पड़ता था। यह कानून कई कारणों से अन्यायपूर्ण था:
- नमक जीवन की मूलभूत आवश्यकता है और समुद्री क्षेत्रों में यह प्राकृतिक रूप से उपलब्ध था
- गरीब किसान और मजदूर भी इस कर से प्रभावित होते थे
- भारत के समुद्री तट लंबे थे और नमक आसानी से बनाया जा सकता था
- यह कानून भारतीयों की मूलभूत स्वतंत्रता का हनन था
गांधीजी द्वारा नमक कानून चुनने के कारण
महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ने के लिए दांडी यात्रा करने का निर्णय कई सोच-समझकर लिए गए कारणों से किया:
1. सार्वभौमिक मुद्दा: नमक एक ऐसा मुद्दा था जो देश के हर वर्ग, हर जाति और हर क्षेत्र के लोगों को प्रभावित करता था। अमीर हो या गरीब, हिंदू हो या मुसलमान, सभी को नमक की आवश्यकता थी। इसलिए यह मुद्दा सभी को एकजुट कर सकता था।
2. सरल और समझने योग्य: नमक कानून एक सरल मुद्दा था जिसे आम आदमी भी आसानी से समझ सकता था। जटिल संवैधानिक या राजनीतिक मुद्दों की तुलना में यह अधिक प्रभावी था।
3. अहिंसक विरोध का प्रतीक: नमक बनाना एक शांतिपूर्ण गतिविधि थी जो गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत के अनुरूप थी। यह एक स्पष्ट सविनय अवज्ञा थी लेकिन इसमें किसी प्रकार की हिंसा नहीं थी।
4. नैतिक आधार: नमक पर एकाधिकार नैतिक रूप से गलत था। प्रकृति द्वारा दी गई वस्तु पर सरकार का एकाधिकार अन्यायपूर्ण था। यह विदेशी शासन के शोषण का स्पष्ट उदाहरण था।
5. जनभागीदारी की संभावना: नमक बनाना एक ऐसी गतिविधि थी जिसमें देश भर के लाखों लोग भाग ले सकते थे। यह केवल नेताओं का आंदोलन नहीं बल्कि जनआंदोलन बन सकता था।
6. प्रतीकात्मक महत्व: नमक कानून ब्रिटिश शासन के अन्याय और शोषण का प्रतीक था। इसे तोड़ना संपूर्ण ब्रिटिश राज को चुनौती देने के समान था।
दांडी यात्रा का विवरण
12 मार्च 1930 को महात्मा गांधी ने अपने 78 सत्याग्रहियों के साथ साबरमती आश्रम से दांडी की 385 किलोमीटर की यात्रा शुरू की। यात्रा में निम्नलिखित विशेषताएं थीं:
- यात्रा मार्ग: साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) से दांडी (गुजरात के समुद्री तट) तक 24 दिन की पैदल यात्रा
- ग्रामीण संपर्क: रास्ते में लगभग 100 गांवों से गुजरे और लोगों को संबोधित किया
- बढ़ती संख्या: शुरू में 78 सत्याग्रही थे लेकिन दांडी पहुंचते-पहुंचते हजारों लोग शामिल हो गए
- मीडिया कवरेज: अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने यात्रा को व्यापक रूप से कवर किया
- 6 अप्रैल 1930: दांडी पहुंचकर गांधीजी ने समुद्री जल से नमक बनाया और कानून तोड़ा
आंदोलन का प्रसार और प्रभाव
दांडी यात्रा के बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन पूरे देश में फैल गया:
- देशव्यापी नमक सत्याग्रह: देश भर के समुद्री तटों पर लाखों लोगों ने नमक बनाया
- महिलाओं की भागीदारी: सरोजिनी नायडू ने धरासणा नमक फैक्ट्री पर छापा मारा
- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार: विदेशी कपड़ों और वस्तुओं का बहिष्कार हुआ
- कर न देने का आंदोलन: किसानों ने लगान देने से इनकार किया
- ब्रिटिश दमन: 60,000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें गांधीजी भी शामिल थे
अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव
दांडी यात्रा ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत प्रभाव डाला:
- विश्व मीडिया ने इसे व्यापक कवरेज दी
- अमेरिकी पत्रिका टाइम ने गांधीजी को "मैन ऑफ द ईयर" घोषित किया
- यूरोप और अमेरिका में ब्रिटिश नीतियों की आलोचना हुई
- अंतर्राष्ट्रीय जनमत भारत के पक्ष में झुका
आंदोलन का महत्व
दांडी यात्रा और नमक सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण था:
1. जनसामान्य की भागीदारी: इसने स्वतंत्रता संग्राम को अभिजात्य वर्ग से निकालकर जनसामान्य तक पहुंचाया। लाखों आम लोगों ने सक्रिय रूप से भाग लिया।
2. अहिंसा की शक्ति: यह अहिंसक प्रतिरोध की शक्ति का प्रमाण था। बिना हथियार उठाए एक अन्यायपूर्ण कानून को चुनौती दी गई।
3. महिलाओं की भागीदारी: पहली बार बड़ी संख्या में महिलाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लिया।
4. ब्रिटिश प्रतिष्ठा को धक्का: यह आंदोलन ब्रिटिश सरकार के लिए एक बड़ी शर्मिंदगी बना। एक मुट्ठी नमक ने साम्राज्य की नींव हिला दी।
5. भविष्य के आंदोलनों का आधार: इस आंदोलन ने भविष्य के सविनय अवज्ञा आंदोलनों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
निष्कर्ष
दांडी यात्रा महात्मा गांधी की राजनीतिक प्रतिभा और रणनीतिक सूझबूझ का उत्कृष्ट उदाहरण थी। एक साधारण मुद्दे - नमक - को उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक शक्तिशाली हथियार बना दिया। यह यात्रा केवल 385 किलोमीटर की पैदल यात्रा नहीं थी, बल्कि यह भारत की स्वतंत्रता की दिशा में एक विशाल कदम था। इसने साबित किया कि अहिंसक प्रतिरोध द्वारा भी सबसे शक्तिशाली साम्राज्य को चुनौती दी जा सकती है। दांडी यात्रा आज भी दुनिया भर में नागरिक अवज्ञा आंदोलनों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
प्रश्न 21: भारतीय संविधान में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर हुई बहसों की व्याख्या कीजिए।
✓ उत्तर:
भूमिका
भारतीय संविधान के निर्माण के समय सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का मुद्दा सबसे विवादास्पद और संवेदनशील मुद्दों में से एक था। यह मुद्दा केवल संवैधानिक नहीं बल्कि गहराई से राजनीतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक था। इसने भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य से जुड़े प्रश्न उठाए।
सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का इतिहास
सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था भारत में ब्रिटिश शासन की देन थी:
- 1909 का मॉर्ले-मिंटो सुधार: पहली बार मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गई। इसके तहत मुसलमान केवल मुस्लिम उम्मीदवारों को ही वोट दे सकते थे।
- 1919 का मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार: सिखों को भी पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया।
- 1932 का सांप्रदायिक पंचाट: ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने दलितों (अछूत) के लिए भी पृथक निर्वाचन की घोषणा की।
- पूना समझौता 1932: गांधीजी के आमरण अनशन के बाद दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की जगह आरक्षित सीटों की व्यवस्था की गई।
ब्रिटिश सरकार ने "फूट डालो और राज करो" की नीति के तहत सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया जिसके कारण हिंदू-मुस्लिम विभाजन गहरा हुआ और अंततः देश का विभाजन हुआ।
संविधान सभा में बहस के पक्ष
सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व जारी रखने के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए:
1. अल्पसंख्यकों की सुरक्षा: कुछ सदस्यों ने तर्क दिया कि बहुसंख्यक समाज में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए पृथक प्रतिनिधित्व आवश्यक है। वे चुनाव में अपने बल पर सीटें नहीं जीत सकते।
2. ऐतिहासिक अनुभव: मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों ने कहा कि सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के बिना अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिनिधित्व संभव नहीं है।
3. सामाजिक यथार्थ: भारतीय समाज में सांप्रदायिक पहचान एक वास्तविकता है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
बहस के विपक्ष में तर्क
अधिकांश सदस्य सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के विरुद्ध थे और उन्होंने प्रभावशाली तर्क दिए:
1. राष्ट्रीय एकता को नुकसान: जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और अन्य नेताओं ने कहा कि सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध है। यह समाज को धार्मिक आधार पर विभाजित करता है और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देता है।
2. विभाजन का दर्दनाक अनुभव: 1947 के विभाजन में लाखों लोग मारे गए और करोड़ों विस्थापित हुए। यह सांप्रदायिक राजनीति का सबसे दुखद परिणाम था। संविधान सभा के सदस्य इस त्रासदी से गहराई से प्रभावित थे और वे इसे दोबारा नहीं होने देना चाहते थे।
3. धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा: डॉ. बी आर अंबेडकर ने जोर देकर कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा जहां धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं होगा। सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के विपरीत है।
4. संकीर्ण पहचान: सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व लोगों को उनकी धार्मिक पहचान तक सीमित कर देता है। यह राष्ट्रीय पहचान और साझा नागरिकता की भावना को कमजोर करता है।
5. राजनीतिक विखंडन: इससे राजनीति में सांप्रदायिक दलों का उदय होता है जो केवल अपने समुदाय के हितों की बात करते हैं, राष्ट्रीय हितों की नहीं।
6. ब्रिटिश विरासत: यह ब्रिटिश "फूट डालो और राज करो" की नीति का हिस्सा था। स्वतंत्र भारत को इस विरासत से मुक्त होना चाहिए।
प्रमुख सदस्यों के विचार
डॉ. बी आर अंबेडकर: उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व भारत के लिए "जहर" है। उन्होंने कहा कि यह समाज को स्थायी रूप से विभाजित करता है और एक राष्ट्र के निर्माण में बाधक है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए अन्य उपाय किए जाने चाहिए, न कि सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व द्वारा।
सरदार वल्लभभाई पटेल: उन्होंने कहा कि भारत के विभाजन का मुख्य कारण सांप्रदायिक राजनीति थी। उन्होंने संविधान सभा से आग्रह किया कि इस गलती को दोबारा न दोहराया जाए।
जवाहरलाल नेहरू: नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि हमें एक ऐसा राष्ट्र बनाना है जहां नागरिक की पहचान उसके धर्म से नहीं बल्कि उसकी नागरिकता से हो।
मौलाना अबुल कलाम आजाद: मुस्लिम समुदाय के प्रतिष्ठित नेता होते हुए भी उन्होंने सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का विरोध किया। उन्होंने कहा कि यह मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग कर देगा और उनके विकास में बाधक होगा।
संविधान सभा का निर्णय
लंबी और गहन बहस के बाद संविधान सभा ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण निर्णय लिए:
1. सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की समाप्ति: संविधान सभा ने सर्वसम्मति से धार्मिक आधार पर पृथक निर्वाचन की व्यवस्था को समाप्त कर दिया। अनुच्छेद 325 में स्पष्ट किया गया कि मतदाता सूची में किसी को धर्म, मूलवंश, जाति या लिंग के आधार पर शामिल या बाहर नहीं किया जाएगा।
2. संयुक्त निर्वाचन प्रणाली: सभी नागरिकों के लिए एक संयुक्त निर्वाचन प्रणाली स्थापित की गई। सभी धर्मों के मतदाता किसी भी उम्मीदवार को वोट दे सकते हैं।
3. धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत: भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया (1976 में संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में "धर्मनिरपेक्ष" शब्द जोड़ा गया)। राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं होगा और सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार किया जाएगा।
4. मौलिक अधिकारों द्वारा सुरक्षा: अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए मौलिक अधिकार प्रदान किए गए:
- अनुच्छेद 29-30: अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को संरक्षित करने तथा अपनी पसंद की शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित करने का अधिकार
- अनुच्छेद 25-28: धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
- अनुच्छेद 15: धर्म के आधार पर भेदभाव का निषेध
5. सामाजिक-आर्थिक आरक्षण: हालांकि धार्मिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया गया, लेकिन सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई (अनुच्छेद 15(4), 15(5), 16(4))। यह जाति पर आधारित था न कि धर्म पर।
इस निर्णय का महत्व
1. राष्ट्रीय एकता का आधार: सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की समाप्ति ने राष्ट्रीय एकता के लिए मजबूत आधार प्रदान किया। यह स्पष्ट संदेश था कि भारत एक राष्ट्र है, कई धार्मिक समूहों का संग्रह नहीं।
2. धर्मनिरपेक्षता की स्थापना: इस निर्णय ने भारत को एक वास्तविक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में स्थापित किया जहां धर्म व्यक्तिगत विश्वास का मामला है, राजनीतिक पहचान का नहीं।
3. विभाजन के जख्मों को भरना: यह निर्णय विभाजन की त्रासदी के बाद समाज को पुनः जोड़ने का प्रयास था। यह संदेश था कि अब हम एक नए भारत का निर्माण करेंगे जहां सांप्रदायिकता के लिए कोई स्थान नहीं होगा।
4. समान नागरिकता: इसने सभी नागरिकों को समान दर्जा प्रदान किया। किसी को धर्म के आधार पर विशेष या हीन दर्जा नहीं दिया गया।
5. राजनीतिक स्थिरता: संयुक्त निर्वाचन प्रणाली ने राजनीतिक दलों को सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रोत्साहित किया, केवल एक समुदाय पर निर्भर रहने के लिए नहीं।
चुनौतियां और आलोचना
हालांकि यह निर्णय सैद्धांतिक रूप से सही था, लेकिन कुछ चुनौतियां भी सामने आईं:
- कुछ अल्पसंख्यक समूहों को लगा कि उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व कम हो गया
- सांप्रदायिक दल अभी भी धर्म के आधार पर राजनीति करते रहे
- कुछ क्षेत्रों में सांप्रदायिक तनाव जारी रहा
निष्कर्ष
संविधान सभा का सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को समाप्त करने का निर्णय साहसिक और दूरदर्शी था। विभाजन की त्रासदी के तुरंत बाद यह निर्णय लेना आसान नहीं था, लेकिन संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को प्राथमिकता दी। उन्होंने समझा कि सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का सही तरीका नहीं है। इसके बजाय, उन्होंने मौलिक अधिकारों, कानून के शासन और लोकतांत्रिक संस्थाओं के माध्यम से सभी नागरिकों के हितों की रक्षा की व्यवस्था की। यह निर्णय आज भी भारत की धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक पहचान का आधार है।
अथवा
संविधान सभा में भाषा के मुद्दे पर हुई बहसों का वर्णन कीजिए।
✓ उत्तर:
भूमिका
भारतीय संविधान के निर्माण के दौरान भाषा का मुद्दा सबसे जटिल और विवादास्पद मुद्दों में से एक था। भारत एक बहुभाषी देश है जहां सैकड़ों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं। राजभाषा के चयन का प्रश्न केवल संचार का मामला नहीं था बल्कि यह क्षेत्रीय पहचान, सांस्कृतिक गौरव और राजनीतिक प्रतिनिधित्व से गहराई से जुड़ा था।
भाषायी परिदृश्य
संविधान सभा के समक्ष कई भाषायी विकल्प थे:
- हिंदी: उत्तर भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा
- अंग्रेजी: प्रशासन और शिक्षा की भाषा, ब्रिटिश शासन की विरासत
- उर्दू: मुस्लिम समुदाय द्वारा व्यापक रूप से प्रयुक्त
- संस्कृत: प्राचीन भाषा, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
- क्षेत्रीय भाषाएं: तमिल, तेलुगु, बंगला, मराठी आदि
हिंदी के पक्ष में तर्क
हिंदी को राजभाषा बनाने के पक्ष में प्रमुख तर्क थे:
1. सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा: हिंदी उत्तर भारत में सबसे अधिक बोली जाती थी। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली में यह मुख्य भाषा थी।
2. राष्ट्रवादी भावना: हिंदी को राष्ट्रवादी आंदोलन से जोड़ा गया था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधीजी और अन्य नेताओं ने हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्थापित करने की वकालत की थी। महात्मा गांधी ने हिंदी को "जनभाषा" कहा था।
3. स्वदेशी भाषा: हिंदी भारतीय भाषा है जबकि अंग्रेजी विदेशी शासन की विरासत। स्वतंत्र भारत को अपनी भाषा में काम करना चाहिए।
4. संस्कृत से संबंध: हिंदी संस्कृत से उत्पन्न हुई है जो भारतीय सभ्यता की प्राचीन भाषा है। यह भारत की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ी है।
5. अन्य भाषाओं के साथ समानता: हिंदी में लिखी देवनागरी लिपि अन्य भारतीय भाषाओं की लिपियों से मिलती-जुलती है। इसे सीखना अपेक्षाकृत आसान है।
हिंदी के विरोध में तर्क
हिंदी को राजभाषा बनाने के विरोध में भी सशक्त तर्क दिए गए:
1. दक्षिण भारत का विरोध: तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के प्रतिनिधियों ने हिंदी का जोरदार विरोध किया। उनका तर्क था कि हिंदी उत्तर भारत की भाषा है और दक्षिण में इसे नहीं बोला जाता। इसे थोपना अन्यायपूर्ण होगा।
2. उत्तर भारतीय वर्चस्व का भय: गैर-हिंदी भाषी राज्यों को डर था कि हिंदी राजभाषा बनने से उत्तर भारतीयों का प्रशासन और राजनीति में वर्चस्व स्थापित हो जाएगा। दक्षिण भारतीयों को सरकारी नौकरियों में नुकसान होगा।
3. समृद्ध क्षेत्रीय भाषाएं: तमिल, तेलुगु, बंगला, मराठी जैसी भाषाओं का अपना गौरवशाली साहित्य और इतिहास है। ये भाषाएं हजारों वर्ष पुरानी हैं और इनमें समृद्ध साहित्य है। इन्हें हीन स्थिति में रखना अन्याय है।
4. अंग्रेजी की व्यावहारिकता: अंग्रेजी पहले से ही प्रशासन, न्याय और शिक्षा की भाषा थी। सभी दस्तावेज और कानून अंग्रेजी में थे। अचानक बदलाव से प्रशासनिक अराजकता हो सकती थी।
5. अंतर्राष्ट्रीय संपर्क: अंग्रेजी विश्व स्तर पर स्वीकृत भाषा है। इससे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सुविधा होती है।
प्रमुख नेताओं के विचार
आर.वी. धुलेकर: हिंदी के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने संविधान सभा में हिंदी में भाषण दिया और कहा कि जो लोग हिंदी नहीं जानते उन्हें भारत छोड़ देना चाहिए। यह अतिवादी बयान था जिसने विवाद को और बढ़ा दिया।
टी.ए. रामलिंगम चेट्टियार (तमिलनाडु): उन्होंने हिंदी का कड़ा विरोध किया। उन्होंने कहा कि हिंदी को थोपना उत्तर भारतीय साम्राज्यवाद है। उन्होंने तमिल की प्राचीनता और समृद्धि का उल्लेख किया।
शंकरराव देव (महाराष्ट्र): उन्होंने संस्कृत को राजभाषा बनाने का सुझाव दिया क्योंकि यह तटस्थ है और सभी भारतीय भाषाओं की जननी है।
जवाहरलाल नेहरू: नेहरू ने संतुलित दृष्टिकोण अपनाया। वे हिंदी के समर्थक थे लेकिन साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व को भी स्वीकार करते थे। उन्होंने कहा कि भाषा को बलपूर्वक नहीं थोपा जा सकता।
सी. राजगोपालाचारी: उन्होंने अंग्रेजी को जारी रखने की वकालत की, कम से कम एक संक्रमण काल के लिए।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर: अंबेडकर व्यावहारिक थे। उन्होंने कहा कि भाषा का मुद्दा भावनात्मक है लेकिन इसे तर्कसंगत तरीके से हल करना होगा।
मुंशी-आयंगर सूत्र
भाषा के मुद्दे पर सभा में गहरा विभाजन था। अंततः के.एम. मुंशी और एन. गोपालस्वामी आयंगर ने एक समझौता सूत्र प्रस्तुत किया जिसे मुंशी-आयंगर सूत्र कहा जाता है। इस सूत्र में निम्नलिखित प्रावधान थे:
- हिंदी संघ की राजभाषा होगी (देवनागरी लिपि में)
- अंग्रेजी 15 वर्षों के लिए सह-राजभाषा के रूप में जारी रहेगी
- इस अवधि के बाद संसद कानून बनाकर अंग्रेजी के प्रयोग को जारी रख सकती है
- राज्यों को अपनी आधिकारिक भाषाओं को चुनने की स्वतंत्रता होगी
संविधान में भाषा संबंधी प्रावधान
संविधान के भाग XVII (अनुच्छेद 343-351) में भाषा से संबंधित विस्तृत प्रावधान हैं:
अनुच्छेद 343: संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा। संविधान लागू होने से 15 वर्षों तक (1965 तक) अंग्रेजी सरकारी कामकाज में प्रयुक्त होती रहेगी।
अनुच्छेद 344: राष्ट्रपति 5 वर्ष और फिर 10 वर्ष बाद एक आयोग गठित करेगा जो हिंदी के प्रगामी प्रयोग और अंग्रेजी के प्रयोग पर प्रतिबंध के बारे में सिफारिशें करेगा।
अनुच्छेद 345: राज्य विधानमंडल कानून द्वारा राज्य में प्रयोग के लिए एक या अधिक भाषाओं को या हिंदी को अपना सकता है।
अनुच्छेद 346-347: राज्यों के बीच और राज्य व संघ के बीच संचार की भाषा।
अनुच्छेद 348-349: उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी होगी जब तक कि संसद कानून द्वारा अन्यथा न करे।
अनुच्छेद 350: व्यथा के निवारण के लिए किसी भी भाषा में अभ्यावेदन देने का अधिकार।
अनुच्छेद 350A: प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएं।
अनुच्छेद 351: हिंदी के विकास का दायित्व संघ पर है, लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं से शब्द लेते हुए और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना।
आठवीं अनुसूची: संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता प्राप्त भाषाओं की सूची है। मूल संविधान में 14 भाषाएं थीं। अब 22 भाषाएं हैं: असमिया, बंगला, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगु, उर्दू, बोडो, संथाली, मैथिली और डोगरी।
1965 का भाषा विवाद
जब 1965 में अंग्रेजी के सह-राजभाषा का दर्जा समाप्त होने वाला था, तो विशेष रूप से तमिलनाडु में तीव्र विरोध हुआ। हिंसक प्रदर्शन हुए और कई लोगों ने आत्मदाह कर लिया। इसके बाद 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित किया गया जिसमें अंग्रेजी को अनिश्चितकाल तक सह-राजभाषा के रूप में जारी रखा गया। 1967 में इसमें संशोधन किया गया और स्पष्ट किया गया कि जब तक सभी गैर-हिंदी राज्य सहमत न हों, अंग्रेजी जारी रहेगी।
वर्तमान स्थिति
आज भी भाषा का मुद्दा पूरी तरह सुलझा नहीं है:
- हिंदी और अंग्रेजी दोनों केंद्र सरकार की भाषाएं हैं
- राज्यों ने अपनी-अपनी भाषाएं अपनाई हैं
- त्रिभाषा फॉर्मूला लागू किया गया जिसमें छात्रों को हिंदी, अंग्रेजी और एक क्षेत्रीय भाषा पढ़नी होती है
- सरकारी दस्तावेज हिंदी और अंग्रेजी दोनों में जारी होते हैं
- समय-समय पर हिंदी को बढ़ावा देने के प्रयास होते हैं जिससे कभी-कभी विवाद उत्पन्न होता है
निष्कर्ष
भाषा का मुद्दा संविधान सभा की सबसे कठिन चुनौतियों में से एक था। इसमें भावनाएं, गौरव, व्यावहारिकता और राजनीति सभी जुड़े थे। संविधान निर्माताओं ने एक समझौतावादी और लचीला दृष्टिकोण अपनाया जिसने तात्कालिक संकट को टाल दिया। हिंदी को राजभाषा बनाया गया लेकिन अंग्रेजी को भी जगह दी गई। क्षेत्रीय भाषाओं को सम्मान दिया गया। यह व्यवस्था पूर्णतः संतोषजनक नहीं हो सकती लेकिन इसने भारत की भाषायी विविधता को बनाए रखते हुए प्रशासनिक एकता सुनिश्चित की है। भाषा का मुद्दा आज भी संवेदनशील है और इसे सावधानी से संभालने की आवश्यकता है। लोकतांत्रिक संवाद और परस्पर सम्मान ही इस मुद्दे का दीर्घकालिक समाधान है।
प्रश्न 22: मानचित्र कार्य (Map Work)
दिए गए भारत के रेखा-मानचित्र में निम्न को दर्शाइए:
i) हड़प्पा
ii) मोहनजोदड़ो
iii) लोथल
iv) कालीबंगन
✓ उत्तर: सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल
- हड़प्पा: पंजाब (पाकिस्तान) में रावी नदी के तट पर स्थित। यह सभ्यता का पहला खोजा गया स्थल है।
- मोहनजोदड़ो: सिंध (पाकिस्तान) में सिंधु नदी के तट पर। विशाल स्नानागार के लिए प्रसिद्ध।
- कालीबंगन: राजस्थान (भारत) में घग्गर नदी के तट पर। जुते हुए खेत के साक्ष्य मिले।
- लोथल: गुजरात (भारत) में भोगवा नदी के पास। गोदीबाड़ा (बंदरगाह) के लिए प्रसिद्ध।
स्थल | नदी | राज्य/देश | खोजकर्ता | वर्ष | प्रमुख विशेषता |
---|---|---|---|---|---|
हड़प्पा | रावी | पंजाब, पाकिस्तान | दयाराम साहनी | 1921 | अन्नागार, श्रमिक आवास |
मोहनजोदड़ो | सिंधु | सिंध, पाकिस्तान | आर.डी. बनर्जी | 1922 | विशाल स्नानागार, नर्तकी की मूर्ति |
कालीबंगन | घग्गर (सरस्वती) | राजस्थान, भारत | ए. घोष | 1953 | जुते हुए खेत, अग्नि वेदियां |
लोथल | भोगवा | गुजरात, भारत | एस.आर. राव | 1954 | गोदीबाड़ा (बंदरगाह) |
✅ प्रश्न पत्र समाप्त
कुल प्रश्न: 22 | खंड: 4 (अ, ब, स, द) + मानचित्र
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