न्यायपालिका: स्वतंत्र न्यायिक व्यवस्था और न्यायिक समीक्षा | UPSC Judiciary Guide

| जुलाई 16, 2025
न्यायपालिका - स्वतंत्र न्यायिक व्यवस्था

🏛️ न्यायपालिका - स्वतंत्र न्यायिक व्यवस्था और न्यायिक समीक्षा

भारतीय संविधान में न्यायपालिका को लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ के रूप में स्थापित किया गया है। यह न केवल कानून और व्यवस्था बनाए रखने का कार्य करती है, बल्कि संविधान की रक्षा और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

⚖️ न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत और संवैधानिक गारंटी

स्वतंत्रता के आधारभूत सिद्धांत

न्यायिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि न्यायपालिका अपने निर्णयों में किसी भी बाहरी दबाव, चाहे वह कार्यपालिका से हो या विधायिका से, से मुक्त होकर कार्य करे। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की आधारशिला है।

संवैधानिक गारंटियां:

न्यायाधीशों की सुरक्षा:

  • न्यायाधीशों को केवल महाभियोग की प्रक्रिया द्वारा ही हटाया जा सकता है
  • उनके वेतन में कमी नहीं की जा सकती
  • सेवानिवृत्ति के बाद वकालत पर प्रतिबंध

प्रशासनिक स्वतंत्रता:

  • न्यायालयों का अपना बजट
  • न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका की भूमिका
  • न्यायालयों की अवमानना के मामले में स्वयं कार्रवाई की शक्ति

🏛️ सुप्रीम कोर्ट: संरचना, न्यायाधीशों की नियुक्ति और कार्यकाल

संरचना

34
न्यायाधीश (1 मुख्य + 33 अन्य)
65
सेवानिवृत्ति की आयु

योग्यताएं:

  • भारतीय नागरिकता
  • उच्च न्यायालय में 5 वर्ष का न्यायाधीश का अनुभव, या
  • उच्च न्यायालय में 10 वर्ष का वकालत का अनुभव, या
  • राष्ट्रपति की दृष्टि में एक प्रतिष्ठित न्यायविद्

नियुक्ति प्रक्रिया - कॉलेजियम प्रणाली

कॉलेजियम की संरचना: मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में 5 वरिष्ठ न्यायाधीशों का कॉलेजियम सिफारिशें राष्ट्रपति को भेजता है। व्यावहारिक रूप से राष्ट्रपति इन सिफारिशों को स्वीकार करते हैं।

⚖️ सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार

मूल क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction)

केंद्र और राज्य के बीच विवाद:

  • संघीय विवादों का निपटारा
  • राज्यों के आपसी विवाद
  • मौलिक अधिकारों के हनन के मामले

अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appellate Jurisdiction)

विभिन्न प्रकार की अपीलें:

  • दीवानी मामले: उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपील
  • फौजदारी मामले: मृत्युदंड के मामले और उच्च न्यायालय की सजा के विरुद्ध
  • विशेष अनुमति याचिका (SLP): सुप्रीम कोर्ट के विवेकाधिकार पर आधारित

सलाहकार क्षेत्राधिकार (Advisory Jurisdiction)

अनुच्छेद 143: राष्ट्रपति द्वारा संविधान के मामलों पर सलाह मांगी जा सकती है। यह सलाह बाध्यकारी नहीं होती। अयोध्या मामले में इसका उपयोग हुआ था।

🔍 न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत और विकास

न्यायिक समीक्षा का अर्थ

न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका की वह शक्ति है जिसके द्वारा वह विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों की संवैधानिकता की जांच कर सकती है और असंवैधानिक पाए जाने पर उन्हें रद्द कर सकती है।

ऐतिहासिक विकास

केशवानंद भारती मामला (1973):

इस मामले में आधारभूत ढांचे का सिद्धांत स्थापित हुआ। संविधान के कुछ तत्व इतने मूलभूत हैं कि उन्हें संशोधन द्वारा भी नहीं बदला जा सकता। इसमें लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद आदि शामिल हैं।

मेनका गांधी मामला (1978):

अनुच्छेद 21 की व्यापक व्याख्या की गई और प्रक्रियात्मक उचित प्रक्रिया का सिद्धांत स्थापित हुआ। मौलिक अधिकारों की अंतर-संबद्धता को मान्यता मिली।

🏢 उच्च न्यायालयों की स्थापना और क्षेत्राधिकार

25
उच्च न्यायालय
62
सेवानिवृत्ति की आयु

क्षेत्राधिकार

मूल क्षेत्राधिकार:

  • रिट जारी करने की शक्ति
  • मौलिक अधिकारों की सुरक्षा
  • प्रशासनिक कार्यों की न्यायिक समीक्षा

👥 कॉलेजियम सिस्टम: NJAC विवाद और वर्तमान स्थिति

कॉलेजियम प्रणाली का विकास

तीन जजेस मामला (1981):

न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका की प्राथमिकता स्थापित हुई। "परामर्श" का अर्थ "सहमति" माना गया।

दूसरा जजेस मामला (1993):

कॉलेजियम प्रणाली की स्थापना हुई जो बहुलता के सिद्धांत पर आधारित है।

NJAC विवाद (2014-2015)

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में असंवैधानिक घोषित किया। न्यायिक स्वतंत्रता के हनन के आधार पर कॉलेजियम प्रणाली की बहाली हुई।

वर्तमान सुधार

मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (MoP):

  • पारदर्शिता में वृद्धि
  • समयबद्ध प्रक्रिया
  • बेहतर जांच प्रक्रिया

⚖️ न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक संयम

न्यायिक सक्रियता

सकारात्मक पहलू:

  • मौलिक अधिकारों की सुरक्षा
  • वंचित वर्गों के लिए न्याय
  • पर्यावरण संरक्षण में योगदान

नकारात्मक पहलू:

  • शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन
  • लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप
  • न्यायिक अतिक्रमण का खतरा

📜 PIL (जनहित याचिका) का विकास

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

1980 के दशक में न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती की पहल पर पारंपरिक "लोकस स्टैंडी" की बाधा को हटाकर सामाजिक न्याय के लिए न्यायपालिका का द्वार खोला गया।

प्रमुख विशेषताएं

पहुंच की सुविधा:

  • कोई भी व्यक्ति पीड़ित व्यक्ति की ओर से याचिका दायर कर सकता है
  • पोस्टकार्ड या पत्र के माध्यम से भी याचिका दायर की जा सकती है
  • न्यायालय शुल्क की आवश्यकता नहीं

महत्वपूर्ण PIL मामले

पर्यावरण संरक्षण:

  • एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ: गंगा प्रदूषण मामला
  • वेल्लोर सिटीजन वेलफेयर फोरम: प्रदूषक भुगतान सिद्धांत

मानव अधिकार:

  • बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ: बंधुआ मजदूरी
  • ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन: फुटपाथ पर रहने वालों के अधिकार

📚 महत्वपूर्ण संवैधानिक मामले और उनका प्रभाव

SR बोम्मई बनाम भारत संघ (1994):

  • राष्ट्रपति शासन की न्यायिक समीक्षा
  • धर्मनिरपेक्षता आधारभूत ढांचे का अंग
  • संघीय संतुलन की सुरक्षा

निजता का अधिकार मामला (2017):

  • निजता को मौलिक अधिकार का दर्जा
  • डिजिटल युग में नई चुनौतियां
  • आधार योजना पर प्रभाव

🚨 समसामयिक चुनौतियां और भविष्य की दिशा

लंबित मामलों की समस्या

70,000
सुप्रीम कोर्ट में लंबित
50 लाख
उच्च न्यायालयों में
3 करोड़
अधीनस्थ न्यायालयों में

समाधान की दिशा

तकनीकी नवाचार:

  • ई-कोर्ट प्रोजेक्ट
  • डिजिटल केस फाइलिंग
  • वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुनवाई
  • कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग

संरचनात्मक सुधार:

  • न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि
  • फास्ट ट्रैक कोर्ट का विस्तार
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) को बढ़ावा
  • न्यायिक अवसंरचना का विकास

🎯 निष्कर्ष

भारतीय न्यायपालिका ने 75 वर्षों में अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रखते हुए लोकतंत्र की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

"न्यायपालिका की मजबूती ही भारतीय लोकतंत्र की मजबूती है। इसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता और प्रभावशीलता पर ही संविधान की सर्वोच्चता और नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा निर्भर करती है।"

न्यायिक समीक्षा की शक्ति, PIL के माध्यम से न्याय तक पहुंच का विस्तार, और संविधान की आधारभूत संरचना की सुरक्षा इसकी प्रमुख उपलब्धियां हैं।

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